कांग्रेस ने आंबेडकर को लोकसभा चुनाव में दो बार क्यों हराया?
आंबेडकर की समाज सुधारक वाली छवि कांग्रेस के लिए चिंता का कारण थी
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
भारतीय संविधान के मुख्य आर्किटेक्ट, दलितों (अनुसूचित जाति) का मसीहा, कानून का विशेषज्ञ, देश के पहले विधि और न्याय मंत्री के तौर पर देश याद करता है. ऐसे महान दलित नेता को लोकसभा चुनाव में हराने के लिए कांग्रेस ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी. 1952 के पहले चुनाव में कांग्रेस ने आंबेडकर को हराने के लिए उन्हीं के पीए नारायण सबोदा काजरोलकर को उतार दिया था, खुद तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने सभा की थी. इसका नतीजा यह हुआ कि आंबेडकर चुनाव हार गये थे. बंडारा में जब उपचुनाव हुआ और आंबेडकर चुनाव में खड़ा हुए तो फिर कांग्रेस ने पूरी ताकत लगाकर उन्हें हरा दिया था.
देश की राजनीति में अनुसूचित जाति का बड़ा प्रभाव रहा है. अगर 2011 की जनसंख्या को देखें तो अनुसूचित जाति की आबादी 20.13 करोड़ है (बिहार में 1.65 करोड़, झारखंड में 39.85 लाख). लोकसभा में 84 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है. हालांकि उन दिनों आबादी कम थी लेकिन दलितों के साथ हो रहे अन्याय व कुछ अन्य मुद्दों का आंबेडकर ने तब विरोध किया था और 27 सितंबर, 1951 को नेहरू कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया था.
आंबेडकर के अलावा कई और दिग्गज नेता कांग्रेस की नीति के खिलाफ थे. नेहरू कैबिनेट में उद्योग मंत्री का पद संभालनेवाले श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने इस्तीफा देकर भारतीय जनसंघ की स्थापना की थी. बीआर आंबेडकर ने शिड्यल कास्ट फेडरेशन पार्टी बनायी थी जिसका नाम बाद में रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया कर दिया गया. आचार्य कृपालानी ने किसान मजदूर प्रजा पार्टी बनायी थी.
आंबेड़कर कोई सामान्य व्यक्ति नहीं थे. कोलंबिया यूनिवर्सिटी और लंदन स्कूल आफ इकानामिक्स दोनों जगहों से डॉक्टरेट की डिग्री ली थी. कानून की पढ़ाई भी की थी. लेकिन कांग्रेस उनसे नाराज रहती थी. जब संविधान सभा के सदस्यों का चुनाव हो रहा था तो 296 सदस्यों में आंबेडकर का नाम नहीं था क्योंकि बंबई के तत्कालीन मुख्यमंत्री बीजी खेर ने उनका नाम नहीं भेजा था. ऐसे हालात में बंगाल के दलित नेता जोगेंद्र मंडल ने उनका साथ देते हुए बंगाल से संविधान सभा के लिए उनका नाम भेजवाया.
1951-52 में आजादी के बाद जब देश में पहला आम चुनाव हुआ तो आंबेडकर ने बांबे नार्थ सेंट्रल से शिड्यूल कास्ट फेडरेशन पार्टी से चुनाव लड़ा. यह उनकी अपनी पार्टी थी. कांग्रेस ने आंबेडकर के पीए रहे काजरोलकर को उतारा, जो राजनीति में बिल्कुल नये थे. लेकिन कांग्रेस की ताकत इतनी थी कि आंबेडकर लगभग 15 हजार मतों से हार गये.
इस चुनाव में आंबेडकर को 123576 मत मिले थे जबकि विजेता कांग्रेसी प्रत्याशी काजरोलकर को 138137 मत. हार हुई थी लगभग 15 हजार से और इसका एक बड़ा कारण था प्रसिद्ध कम्युनिस्ट पार्टी नेता एसए डांगे का वहां से चुनाव लड़ना. डांगे को 96,755 वोट मिले थे. एक और मौका आया था. जब 1954 में जब बंडारा में उपचुनाव हुआ तो आंबेडकर ने वहां से भी चुनाव लड़ा. कांग्रेस ने पूरी ताकत लगायी और आंबेडकर फिर लोकसभा चुनाव का हार गये.
संसद में तो वे गये लेकिन राज्यसभा से, लोकसभा का चुनाव जीत कर नहीं. इसका उन्हें अफसोस भी था क्योंकि अपनी ही धरती पर उन्हें हरा दिया गया था. दूसरा आम चुनाव 1957 में हुआ था लेकिन उसके पहले ही आंबेडकर की मृत्यु हो गयी थी.
अंबेडकर ने निचली जातियों के उत्थान के लिए बहुत कम प्रयास करने के लिए” कांग्रेस की कड़ी आलोचना की। आजादी के बाद भी वही पुराना अत्याचार, वही पुराना उत्पीड़न, वही पुराना भेदभाव था…, अम्बेडकर ने कहा, कांग्रेस पार्टी उद्देश्य या सिद्धांतों की एकता के बिना, एक धर्मशाला में बदल गई है। यह सभी के लिए खुली है। इसमें एक साथ मूर्ख और धूर्त, दोस्त और दुश्मन, सांप्रदायिक और धर्मनिरपेक्षतावादी, सुधारक और रूढ़िवादी, पूंजीपति और पूंजीवाद विरोधी है।
डॉ. अंबेडकर के जीवनी लेखक धनंजय कील ने अपनी पुस्तक “डॉ अंबेडकर: लाइफ एंड मिशन” में लिखा है कि अपने चुनावी अभियान के दौरान अंबेडकर ने नेहरू नेतृत्व पर जमकर हमला बोला, विशेष रूप से उनकी विदेश नीति की आलोचना की।
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