Breaking

मैंने उपन्यास पोस्ट बॉक्स नंबर 203 नालासोपारा आखिर क्यों लिखा–चित्रा मुद्गल.

मैंने उपन्यास पोस्ट बॉक्स नंबर 203 नालासोपारा आखिर क्यों लिखा–चित्रा मुद्गल 

०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
previous arrow
next arrow
०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
previous arrow
next arrow

साहित्य अकादमी में अपने उपन्यास”पोस्ट बॉक्स नंबर 203, नालासोपारा” को लेकर दिया गया वक्तव्य।

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

हां… मैं चित्रा मुद्गल स्वीकार करती हूं अपने पूरे होशो-हवास के साथ कि मैं एक अक्षम्य अपराधी हूँ। और शायद मैं अपनी आखिरी सांस तक भी उस अपराध बोध से मुक्त नहीं हो पाऊंगी।
मैं स्वीकार करती हूं यह भी, कि ‘पोस्ट बॉक्स नंबर 203 नालासोपारा’ लिख लेने के बाद भी मैं उस अपराध बोध से मुक्त नहीं हो पाई हूं। जिससे मुक्ति की कामना ने मुझसे यह उपन्यास लिखवाया। अपने चेत से लगातार मुठभेड़ करती हुई मैं लिखी जाति पंक्ति-दर-पंक्ति की पगडंडियों की माटी में गहरे धँसी, तीखी, नुकीली कंकड़ियों को उचकाते, बीनते, बीन कर उखाड़ फेंकते, उन रास्तों को तलाशती रही और सोचती रही, कि जिन पर चलते हुए खोज लूंगी उन्हें और चिन्हित कर सकूंगी उन अपराधियों को जो मुझे मुक्त कर देंगे उस अपराध बोध से, स्वयं ही यह कबूल कर, कि नाहक ही तुम परिताप में घुल रही हो।

जो अपराध तुमने किया ही नहीं उसके लिए स्वयं को दोषी क्यों ठहरा रही। हो सकता है वह अपराध तुम्हारी बुजुर्ग पीढ़ी से हुआ हो, या बुजुर्ग पीढ़ी की पूर्व पीढ़ी से, या पूर्व पीढ़ी की पूर्व पीढ़ी से, या उस पूर्व पीढ़ी की पूर्व पीढ़ी से। तुमने यदि अपनी कोख से किसी लिंग विकलांग शिशु को जन्म देकर उसे घर परिवार के लिए अमंगल और कलंक मानकर उसे घूरे पर फेंक दिया होता तो दोषी तुम तब होती ना!

लेकिन कुछ तर्क आप को सहारा देने के बजाय पूरी निसंगता के साथ आपके कंधे के नीचे से अपना कंधा खिसका लेते हैं। शब्दों में डूबे हुए हर पल महसूस हुआ, लिखे जाते शब्द अचानक रूप बदल लेते हैं। सहसा वे हो उठते हैं नवजात क्रंदन करते मासूम हजारों हजारों शिशुओं से। जिनकी कांपती मुट्ठीओं से झड़ते हैं चीखों सने, रिरियाते से कुछ शब्द, जो कह रहे होते हैं, हम वह बच्चे हैं जिन्हें सदियों के सीने पर कलंक समझा गया। जन्मते ही हमें मां के दूध से वंचित कर, घर से बाहर फेंक दिया गया।

क्योंकि हम लिंग विकलांग पैदा हुए। विचित्र है, गर्भ से बाहर आते ही नाल काट हमें सामाजिक जीवन से जोड़ दिया गया, लेकिन लोकापवाद के भय से उसी सामाजिक जीवन से दुबारा नाल काट हमें नरक सदृश्य उन अंधेरे कोनों में फेंक दिया गया जहां न हमारा कोई घर था न हमारे लिए कोई समाज, ना सामाजिकता। वह समाज जो सबके लिए था, नहीं था तो सिर्फ हमारे लिए।

मैं देख रही हूं आप सबके चेहरे।
चेहरों पर गहराती अविश्वास की लकीरों को। उन लकीरों में खदबदा आई प्रश्नाकुलता को। सुन रही हूं बिन कहे उनके प्रतिवाद को। हम इतने इतने निर्मम कैसे हो सकते हैं?

घबराइए नहीं। अपनी अनुकूलित ढर्रे में ढली ज़िन्दगी के कपाट खोलिए। जिन्हें आपने अपनी चेतना की कुछ अनदेखी सुरंगों में दफ़न कर रखा है उन्हें कभी न खोलने के लिए। उन सुरंगों के नीम अंधेरों ने ही आपके मानस को अनुकूलित कर रखा है कि कुछ अंधेरे धर्म सम्मत मान्यताएं होते हैं। आपको खामोशी से उनका अनुसरण करना होता है और आप बिना उन्हें प्रश्नांकित किए हुए अनुसरण करते चलते हैं। करते चले आ रहे हैं।

पूछना चाहती हूँ — क्या कभी इस प्रश्न ने आपके मन-मस्तिष्क को नहीं मथा?

दुनिया भर के तिरस्कृत, दमित, शोषित, अधिकार वंचितों यहां तक कि आधी आबादी और दलितों को भी हाशिए ने अपने भीतर मुट्ठी भर हाशिया उपलब्ध कराया है, लेकिन यह क्रूर विडंबना ही है कि लिंग विकलांगों को उस हाशिए में मुट्ठी भर हाशिया भी नहीं मिला। धर्म, समाज, राजनीति और स्वयं मनुष्य ने मनुष्य होकर मनुष्य पर सदियों–सदियों से जो यह अमानुषिक अन्याय किया है, समाज और सामाजिकता से उन्हें बहिष्कृत, तिरस्कृत कर, उनसे उनके मानवीय रूप में जीने का अधिकार छीन कर – क्षम्य है उनका यह अपराध?

2010 में जब मुझे ज्ञात हुआ कि लिंग विकलांगों की पहचान को जनगणना में ‘अदरस्’ के खाते में क़ैद किया जा रहा है तो मैं स्तब्ध रह गई।
अन्याय पर यह कैसा अन्याय। मेल–फीमेल के खानों से बाहर लिंग विकलांगों को ‘अदरस्’ में क्यों दर्ज किया जा रहा है? वे मनुष्य नहीं क्या कीड़े मकोड़े हैं! राजनीति का जवाब था, लिंग ही तो आधार है स्त्री–पुरुष की पहचान का। लिंग विकलांगों को जाहिर है उनकी खाने में कैसे शामिल किया जा सकता है, ‘अदरस्’ में डालकर ही उनकी पहचान को सुनिश्चित किया जा सकता है। यही चला रहा है सदियों से और उस मान्यता को बदलने वाले हम कौन होते हैं?

यानी कि उठाए जाने वाले ज़रूरी सवाल को ‘अदरस्’ के खाने में ढकेल कर फिर दबाया जा रहा है। सदियों से बहुत कुछ ऐसा अमानवीय होता चला आया है जैसे धर्म ने उसे व्याख्यायित किया और उसे चलाना चाहा और समाज आंखों पर पट्टी बांध उसी का अनुसरण करता रहा। आंखें हम क्या अब भी मूंदे रहेंगे इस प्रश्न से? उस बच्चे की पुकार नहीं सुनेंगे जो सुबक ते हुए अपनी -मां से, पिता से प्रश्न कर रहा है युगों से? कि मैं घर से क्यों अलग कर दिया गया मां?
मैं उस बच्चे की पुकार को अनदेखा, अनसुना नहीं कर सकती थी। मैं… हां मैं चित्रा मुद्गल।

आपके लिए शायद यह विश्वास कर पाना कठिन होगा कि कुछ लेखकों की कुछ कृतियां, उसके अपराध बोध की संताने होती हैं। दरअसल ऐसी कृतियों के जन्म का स्रोत सृजनकार की अंतस चेतना में अनायास, अनामंत्रित आसमाया, सदियों–सदियों से किया जा रहा वह अन्याय होता है जो उसके वंशजों द्वारा किया गया होता है और उसी अपराध की विरासत को ढोता हुआ वह नहीं जानता कि अनजाने समाज के कलंक को ढोने वाला वह उस कलंक को अपने माथे पर चिपकाए हुए जी रहा है।

“पोस्ट बॉक्स नंबर 203, नालासोपारा” मेरी वही आत्मस्वीकृति है… मुक्त होना चाहती हूं मैं इस कलंक सेl

मेरे लिए दुआ कीजिए…
आमीन

आपकी
चित्रा मुद्गल

Leave a Reply

error: Content is protected !!