संविधान-निर्माताओं ने समान नागरिक संहिता का वचन क्यों दिया था?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
भारत जैसे सेकुलर देश में विभिन्न धार्मिक समुदायों के लिए भिन्न-भिन्न पर्सनल लॉ नहीं होने चाहिए। संविधान ने भी यह स्पष्ट किया है। अनुच्छेद 44 कहता है- राज्यसत्ता समूचे भारत के परिक्षेत्र में नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का उद्यम करेगी। 1950 में- डॉ. भीमराव आम्बेडकर के नेतृत्व में भारत के संविधान-निर्माताओं ने ऐसी समान नागरिक संहिता (यूनिफॉर्म सिविल कोड या यूसीसी) के बारे में चर्चा की थी, जो पूरे देश में लागू हो।
प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने 1955 में हिंदू मैरिज एक्ट लागू करके इस संवैधानिक निर्देश को हिंदुओं, बौद्धों, जैनों और सिखों के लिए प्रभावी कर दिया था। 1955 के ही हिंदू सक्सेशन एक्ट में सम्पत्ति की विरासत सम्बंधी अधिकारों की बात कही गई थी और वह भी हिंदुओं, बौद्धों, जैनों और सिखों पर लागू होता था। इससे एक साल पहले 1954 में संसद ने एक स्पेशल मैरिज एक्ट अपनाया था।
यह एक वैकल्पिक सिविल मैरिज कानून था, जिसके तहत कोई भी भारतीय नागरिक- जिनमें मुसलमान भी शामिल थे- विवाह के लिए पंजीयन करा सकते थे। लेकिन मौलवियों की जिद थी कि मुस्लिम पर्सनल लॉ को यथावत रखा जाए। जबकि आपराधिक मामलों के लिए भारतीय दण्ड संहिता या आईपीसी के अधीन होने से उन्हें कोई ऐतराज नहीं था। क्योंकि शरीयत कानून के अनुसार कुछ गम्भीर अपराध के मामलों में अंगभंग की सजा भी दी जाती थी और मृत्युदण्ड के लिए भी मध्यकालीन बर्बरता का प्रावधान था।
सवाल उठता है पं. नेहरू ने 1955 में मुस्लिमों को एक सच्चे सेकुलर और प्रगतिशील पर्सनल लॉ का लाभ उठाने का अवसर क्यों नहीं दिया, जैसा कि हिंदुओं और अन्य को दिया गया था? भारत नया-नया आजाद हुआ था और विभाजन की त्रासदी झेल चुका था। 1950 के दशक में देश की बुनियादी चिंताओं में से एक यह थी कि मुस्लिमों को मुख्यधारा का हिस्सा कैसे बनाया जाए।
नेहरू को लगता था कि अगर मुस्लिमों के पर्सनल लॉ के साथ छेड़खानी की गई तो वे उनका विश्वास गंवा देंगे, जिससे उनमें अलगाव या कट्टरता की प्रवृत्ति विकसित हो सकती थी। यह विडम्बना ही है कि वे जिस चीज से बचना चाह रहे थे, आखिरकार वही होकर रही। जब आप किसी एक समुदाय के पक्ष में झुकते हैं तो दूसरी तरफ से प्रतिक्रिया स्वाभाविक है।
शाहबानो केस के बाद से ही देश में विगत तीन दशकों में जो साम्प्रदायिक तनाव बढ़ा है, उसकी जड़ की पहचान करने में भारतीय विश्लेषक बहुत मेधावी साबित नहीं हुए हैं। मिसाल के तौर पर पूर्व आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन ये समझने में चूक गए, जब हाल ही में एक वेबिनार में उन्होंने कहा कि ‘बहुसंख्यकवाद के प्रति बढ़ते झुकाव के बुरे परिणाम होंगे, यह आर्थिक सिद्धांतों के भी प्रतिकूल है। हमें बहुसंख्यकवाद का हर कदम पर विरोध करना चाहिए।’
यकीनन, राजन सही हैं। न्याय, समानता और औचित्य के मानदंडों पर बहुसंख्यकवाद गलत है। लेकिन इतना कहने भर से हम उस वास्तविक समस्या काे समझने से चूक जाते हैं, जिसके एक लक्षण के तौर पर बहुसंख्यकवाद उभरा है। सांसद शशि थरूर ने भी यही गलती दोहराई, जब उन्होंने हाल ही में अपने एक लेख में लिखा कि ‘पहले भारत का सम्मान मुस्लिम-जगत में भी होता था, लेकिन आज भारत को मुस्लिमों के उत्पीड़न और इस्लामोफोबिया के लिए जाना जाता है।’
राजन और थरूर दोनों ही इस बात को समझने से चूक गए कि अल्पसंख्यकवाद जड़ में है, बहुसंख्यकवाद तो केवल इसका एक लक्षण भर है। अगर आप लक्षण को हटाना चाहते हैं तो पहले जड़ का उपचार करना होगा। समान नागरिक संहिता से शुरुआत की जा सकती है। एक मुस्लिम बुद्धिजीवी ताहिर महमूद- जो भारत के पूर्व कानून आयोग सदस्य रह चुके हैं- ने इस बारे में कहीं ज्यादा समझदारी भरा परिप्रेक्ष्य दिया है।
हाल ही में इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित एक लेख में उन्होंने कहा, ‘1960 के दशक के आरम्भ में जब गोवा, दमण और दीव को पुर्तगाली शासन से मुक्त कराया गया था तो संसदीय कानून में निर्देश था कि उन क्षेत्रों में 1867 का पुर्तगाली सिविल कोड तब तक प्रभावी रहेगा, जब तक कि उसमें किसी सक्षम अधिकारी द्वारा संशोधन नहीं कर दिया जाता या उसका उन्मूलन नहीं हो जाता।
आज वह 155 साल पुराना विदेशी कानून खुद अपने देश में प्रभावी नहीं है, लेकिन भारत के उन क्षेत्रों में वह आज तक लागू होता है। पुडुचेरी को तो गोवा, दमण और दीव से भी पहले मुक्त करा लिया गया था, वहां के कुछ नागरिक रेननकैंट्स कहलाते हैं, यानी वे भारतीय जिनके पुरखों ने फ्रांसीसी शासन के दौरान पर्सनल लॉ त्याग दिया था। वे आज भी 1804 के फ्रांसीसी सिविल कोड से शासित होते हैं।’
भारत में जो लोग नेहरूवादी सर्वसम्मति के पैरोकार हैं, उनकी मंशा भले नेक हो, लेकिन वे इस बात को नहीं समझ पाते कि आज मुस्लिमों को सशक्तीकरण की जरूरत है, तुष्टीकरण की नहीं, आधुनिकता की जरूरत है, दकियानूसी सोच की नहीं। ब्रिटेन के वारविक विश्वविद्यालय में कानून के प्राध्यापक उपेंद्र बख्शी यह कहकर यूसीसी का विरोध करते हैं कि इससे भारत की बहुलता पर संकट आएगा।
उनसे पूछा जाना चाहिए कि बहुलता भले अच्छी हो किंतु क्या आधुनिकता बेहतर नहीं? अगर भारत को प्रगतिशील व सेकुलर देश बनाना है तो उसके लिए प्रगतिशील व सेकुलर कानूनों की जरूरत है। संविधान ने हमें समान नागरिक संहिता का वचन दिया था, हमें इस वचन का पालन करना चाहिए।
अल्पसंख्यकवाद जड़, बहुसंख्यकवाद लक्षण
देश में जो साम्प्रदायिक तनाव बढ़ा है, उसकी जड़ की पहचान करने में भारतीय विश्लेषक बहुत मेधावी साबित नहीं हुए हैं। वास्तव में अल्पसंख्यकवाद जड़ में है, बहुसंख्यकवाद तो केवल इसका एक लक्षण भर है। अगर आप लक्षण को हटाना चाहते हैं तो पहले जड़ का उपचार करना होगा। समान नागरिक संहिता से एक अच्छी शुरुआत की जा सकती है।
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