चीन के परमाणु खतरे से कई देशों को सतर्क रहने की क्यों जरूरत है?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
चीन जिस प्रकार परमाणु प्रदर्शन में लगा है, उससे तय है कि इसके पीछे सैन्य आवश्यकताओं से कहीं अधिक राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं बड़ी वजह हैं। अप्रत्याशित गति और दायरे में बढ़ रहे हथियारों के इस जमावड़े की कड़ियां चीनी राष्ट्रपति के अंतरराष्ट्रीय विस्तारवाद से जुड़ती हुई प्रतीत हो रही हैं। चीन की योजना 2049 तक विश्व की सबसे बड़ी महाशक्ति बनने की है।
उसी वर्ष चीन में कम्युनिस्ट शासन के सौ साल पूरे होंगे। प्रतीत होता है कि यह सामरिक गोलबंदी अमेरिका को संदेश देने के लिए की जा रही है, लेकिन भारत सहित चीन के सभी पड़ोसी देशों को इससे सतर्क रहना होगा। वैसे भी शी चिनफिंग के आक्रामक कदम मुख्य रूप से एशिया पर केंद्रित रहे हैं। पूर्वी एवं दक्षिण चीन सागर से लेकर हिमालयी क्षेत्र तक इसके उदाहरण हैं।
तेजी से बढ़ते चीनी परमाणु हथियारों के भंडार को लेकर भू-राजनीतिक निहितार्थों के उलट यही आसार अधिक हैं कि उनसे उत्पन्न सुरक्षा संबंधी प्रभावों की तपिश मुख्य रूप से एशियाई देशों को ही झेलनी पड़ेगी। जापान से लेकर फिलीपींस, भारत और भूटान तक सभी शी की आक्रामक नीतियों का दंश पहले से ही झेल रहे हैं।
बड़े परमाणु जखीरे के साथ शी चीन की अत्यंत सुरक्षित परमाणु ढाल के पीछे अपनी पारंपरिक-सैन्य तिकड़मों और हाइब्रिड युद्ध की रणनीति को और आगे बढ़ाएंगे। ऐसे परिदृश्य में ताइवान पर कसते चीनी शिकंजे को रोक पाना मुश्किल हो सकता है। ऐसा कोई घटनाक्रम एशियाई और अंतरराष्ट्रीय भू-राजनीति को बुनियादी रूप से बदलने की क्षमता रखता है।
किसी आशंकित चीनी हमले से ताइवान के बचाव के पीछे सामरिक बुद्धिमानी को लेकर अमेरिका में सवाल उठने लगे हैं। कुछ विश्लेषकों की यही राय है कि ताइवान के बचाव में अमेरिका की कोई भी योजना बहुत जोखिम भरी होगी। ऐसे में आत्मरक्षा के लिए ताइपे को और प्रयास करने होंगे। पेंटागन के लिए हुए एक अध्ययन के अनुसार ताइवान से युद्ध छिड़ने की स्थिति में चीनी मारक क्षमता अमेरिकी युद्धपोतों और लड़ाकू विमानों को निशाना बना सकती है।
ऐसी स्थिति में अगर चीनी परमाणु क्षमताओं में बड़ा इजाफा होता है तो ताइवान की रक्षा के लिए अमेरिका के आगे आने की संभावनाएं और कमजोर पड़ेंगी, क्योंकि उस स्थिति में वाशिंगटन के लिए जोखिम काफी बढ़ जाएगा।
शी के शासनकाल में चीनी परमाणु क्षमताओं में बढ़ोतरी का अंदाजा इसी पहलू से लगाया जा सकता है कि पहले पेंटागन ने 2030 तक चीन द्वारा ऐसे 400 हथियारों की तैनाती का जो अनुमान लगाया था, उसे बढ़ाकर अब 1,000 से अधिक कर दिया है। चीन ने अपनी हाइपरसोनिक हथियार प्रणाली को भी मोर्चे पर लगा दिया है।
पेंटागन की एक रपट के अनुसार संघर्ष की स्थिति में त्वरित कार्रवाई के लिए चीन पूरी तरह से कमर कसे हुए है। अपने अति सक्रिय परमाणु अभियान को छिपाने के बजाय चीन ने अपने उत्तर-पश्चिमी इलाके में दो नई परमाणु मिसाइल इकाइयों का निर्माण किया है। इनमें से एक इकाई शिनजियांग के उस कुख्यात हामी शिविर से दूर नहीं है, जहां उइगर मुसलमानों को ‘पुनर्शिक्षित’ करने के लिए कैद करके रखा हुआ है। चीन अपनी अंतर महाद्वीपीय मिसाइलों (आइसीबीएम) की संख्या भी 20 से बढ़ाकर 250 करने की योजना बना रहा है।
चीनी सरकारी मीडिया भले ही मिसाइल निर्माण केंद्रों के ढांचे को विंडमिल कहकर खारिज करने का प्रयास करे, परंतु चीनी सरकार की ऐसी कोई मंशा नहीं। उसका तो मकसद ही इन परमाणु हथियार निर्माण इकाइयों के माध्यम से दुनिया भर को यही संदेश देना है कि वह एक ऐसी उभरती हुई महाशक्ति है, जिसकी योजनाओं में कोई पहलू अवरोध नहीं डाल सकता। ऐसा संदेश देने की पहल स्वयं शी ने तब की थी, जब उन्होंने चीनी सेना को अपनी क्षमताओं में अप्रत्याशित बढ़ोतरी का निर्देश दिया था।
यह स्पष्ट है कि परमाणु हथियार प्रतिरोधक के रूप में होते हैं न कि युद्ध लड़ने के लिए। अधिक परमाणु हथियारों से यह आशय नहीं कि प्रतिरोध क्षमता भी अधिक सशक्त हो। यही कारण है कि भारत अपने छोटे, किंतु विविधीकृत परमाणु हथियारों के भंडार से संतुष्ट है। वहीं शी का उद्देश्य अमेरिका और रूस के अति-विनाशकारी बेहिसाब परमाणु हथियारों के भंडार से होड़ करना है।
फिर भी इसके जरिये चीन का मुख्य मकसद अमेरिका को दुनिया के सबसे बड़े गठबंधन के नेता की पदवी से हटाना ही अधिक लगता है। इससे वह अमेरिकी दबाव को भी खत्म करना चाहता है। बीजिंग के एक विश्लेषक के अनुसार, ‘मानवाधिकार, विधि के शासन, हांगकांग और ताइवान को लेकर चीन पर अमेरिकी दबाव बढ़ रहा है।
वाशिंगटन चीनी सरकार की किरकिरी कर राष्ट्रीय एकीकरण की प्रक्रिया में अवरोध डालने के लिए जोखिम लेने से गुरेज नहीं करेगा। इस अमेरिकी अभियान की धार को कुंद करने के लिए परमाणु हथियारों का जमावड़ा कारगर साबित होगा।’
बड़ा सवाल यही है कि परमाणु हथियारों को लेकर शी की ऐसी सनक से क्या अमेरिका की साख घटेगी और चीन के प्रति सम्मान बढ़ेगा? इसका जवाब भले ही अनिश्चित हो, किंतु शी की ऐसी अराजक नीतियां अमेरिका की चीन नीति में आ रहे मूलभूत बदलाव की प्रक्रिया को और तेज करेंगी।
वहीं क्षेत्रीय समीकरणों की दृष्टि से चीन के इस परमाणु प्रसार की छाया एशिया पर ही अधिक पड़ेगी, जहां जापान और भारत जैसे उसके मुख्य एशियाई प्रतिद्वंद्वियों के साथ उसका सैन्य तनाव और बढ़ेगा।
परमाणु शक्ति संपन्न भारत की तुलना में गैर-परमाणु ताकत जापान के लिए इससे ज्यादा जोखिम बढ़ेगा। भारत ने तो पिछले कई महीनों से हिमालयी क्षेत्र में जारी चीनी दुस्साहस के पूर्ण युद्ध में तब्दील होने की भी परवाह न करते हुए चीन को करारा जवाब दिया है। ऐसे में आने वाले समय में जापान द्वारा अपनी सामरिक तैयारी बढ़ाने के पूरे आसार हैं।
चीन के साथ लगातार बढ़े टकराव के दौरान भारत ने भी अपनी सामरिक रणनीति को नए आयाम दिए हैं, जिसमें कई प्रकार की मारक मिसाइलों का सफल परीक्षण किया गया है। यह दर्शाता है कि हिमालयी सीमा के निकट परमाणु हथियारों की चीनी तिकड़मों के बावजूद भारत इस बिगड़ैल पड़ोसी की आक्रामकता का जवाब देने के लिए प्रतिबद्ध है।
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