भगवान को अपना केस खुद क्यों लड़ना पड़ता है?

भगवान को अपना केस खुद क्यों लड़ना पड़ता है?

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

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बॉलीवुड के फिल्म ओ माय गॉड जरूर देखी होगी। इस फिल्म में अभिनेता परेश रावल कांजी लाल का किरदार निभाया था। जिसमें अपनी दुकान भूकंप की वजह से टूटने पर भगवान को दोषी ठहराया था। इसके साथ ही नुकसान की भरपाई के लिए वो भगवान पर केस कर देता है। ये तो फिल्मों की बात हो गई लेकिन वास्तविकता में भी भगवान को अदालत के चक्कर लगाने पड़े हैं।

चाहे वो कुताब मीनार का विवाद हो या मथुरा केस या बहुचर्चित अयोध्या केस, सभी में भगवान खुद एक पक्षकार रहे हैं। अयोध्या की तरह, वाराणसी ज्ञानवापी मामले में भी कई हिंदू देवताओं को वादी बनाया गया है। इसका सचमुच में मतलब क्या है? इतिहास, पौराणिक कथाओं, विश्वास और कानून के साथ तर्क कैसे जुड़ जाते हैं। इस स्टोरी में तीनों शब्द महत्वपूर्ण हैं, “मूर्ति”, “स्थापना” और “सार्वजनिक मंदिर”। आपको बताते हैं कि आखिर भगवान को अपना केस खुद क्यों लड़ना पड़ता है?

धार्मिकता को जगाते वाराणसी जिला अदालत के कक्ष 

“शिवशक्ति, ओम, विश्वेश्वर, वैष्णो” वाराणसी जिला अदालत के कानूनी कक्ष शहर के अधिकांश मंदिरों की तरह लगभग धार्मिकता को जगाते हैं। तंग, हलचल से भरा एन्क्लेव जहां ज्ञानवापी मस्जिद-काशी विश्वनाथ मंदिर के मामलों की बारीकियों पर सुनवाई हो रही है। जैसे ही आप कोर्ट के भीतर दाखिल होंगे तो देखेंगे वकील चंदन के तिलक के साथ अपने मुवक्किलों के साथ जून की दोपहर की तपती गर्मी में अपने मुवक्किलों के साथ कागजों पर तिलक लगाते हैं।

इनमें से कई ‘कक्ष’ एस्बेस्टस छत वाले हैं और उसके नीचे सिर्फ दो बेंच हैं जिनमें अलग-अलग जगहों को चिह्नित करने वाले साइनबोर्ड लगा है। आधी ईंट की दीवार  पर पीली तिरपाल की लगी चादर के ऐसे ही एक कक्ष में सुधीर त्रिपाठी बैठेते हैं। वो हिंदू याचिकाकर्ताओं की ओर से विवाद के कम से कम छह मामलों में जिला अदालत के वकील हैं। उनके चैंबर का अभी कोई नाम नहीं है। केवल एक पोस्टर लगा है जिसके बीच में एक ओम है और उसके चारों ओर 10 हिंदू देवता और प्रतीक हैं। त्रिपाठी 2001 से लॉ की प्रैक्टिस कर रहे हैं। उन्होंने क्रिमिनल केसों के अलावा अब दीवानी मुकदमों पर भी जिरह करनी शुरू दी है।

भगवान वादी कैसे बनते हैं? 

अंग्रेजी अखबार टाइम्स इंडिया से बात करते हुए हिंदू याचिकाकर्ताओं के वकील सुधीर त्रिपाठी बताते हैं कि जहां तक ​​मेरा शोध कहता है, यह केवल भारत में है कि एक देवता एक न्यायिक व्यक्ति हो सकते है, एक कानूनी इकाई जिसके पास मुकदमा करने का अधिकार है। हालांकि यह विचार भारतीय नहीं है। कानूनी अधिकारों के साथ देवताओं को मान्यता देने की नींव 19वीं शताब्दी के भारत के औपनिवेशिक ब्रिटिश न्यायालयों से जुड़ी है।

बॉम्बे हाई कोर्ट में 1887 के एक मामले में गुजरात के डाकोर में रणछोड़ राय जी मंदिर की देखभाल करने वालों पर देवता के लिए धन और प्रसाद को विनियोजित करने का आरोप लगाया गया था। याचिकाकर्ता चाहते थे कि अदालत ट्रस्ट का गठन करके मंदिर का प्रबंधन करने वालों को खर्च के लिए जवाबदेह ठहराए। लेकिन सवाल ये उठा कि ये किसका पैसा और संपत्ति थी? अदालत ने कहा कि हिंदू कानून, रोमन कानून की तरह, “कृत्रिम न्यायिक व्यक्ति” को मान्यता देते हैं। वो कानूनी इकाई “जमीन के रूप में नकदी और गहनों का प्रसाद लेने में सक्षम है”।

औपनिवेशिक व्यवस्था ने इसे क्यों प्रोत्साहित किया?

न्यायमूर्ति गौतम पटेल ने 2010 में लिखा था कि जब मंदिरों की बात आती है तो औपनिवेशिक को रिकॉर्ड और दस्तावेज की जरूरत होती है। उन्हें प्रबंधित करने और चलाने वाले अक्सर मालिक नहीं होते थे। कुछ स्थायीता वाली इकाई मूर्ति थी।” अतः मूर्ति भूमि की स्वामी हो सकती है।  सार्वजनिक स्थान पर स्थापित मूर्ति भारतीय कानून में एक कानूनी व्यक्ति है। एक बार स्थापित होने के बाद, इसे एक न्यायिक व्यक्ति के रूप में मान्यता दी जाती है। 2000 के सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले में कहा गया है कि मूर्ति घरों में पूजनीय हो सकती है, लेकिन न्यायवादी व्यक्तित्व तभी होगा जब इसे किसी सार्वजनिक मंदिर में स्थापित किया जाए।

सुप्रीम कोर्ट भी मानता इस दलील को

भगवान के पक्षकार बनने या केस लड़ने की वजह बड़ी दिलचस्प है। दरअसल, हिंदू धर्म के अनुसार जिस मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा की जाती है, उसे मान्यताओं में जीवित इकाई के तौर पर समझा जाता है। अयोध्या केस में रामलला को शिशु के तौर पर माना गया। अयोध्या केस बाद के मामलों में उदाहरण के तौर पर सामने रखा जाता रहा। हालांकि अयोध्या केस में मूर्ति नाबालिग मानी गई।

देवकीनंदन अग्रवाल ने कहा कि रामलला को पार्टी बनाया जाए, क्‍योंकि विवादित इमारत में साक्षात भगवान रामलला विराजमान हैं। ऐसा माना जा रहा था कि मुस्लिम पक्ष, लॉ ऑफ़ लिमिटेशन यानी परिसीमन क़ानून के हवाले से मंदिर के पक्षकारों के दावे का विरोध करेंगे। 1963 का लॉ ऑफ़ लिमिटेशन यानी परिसीमन क़ानून, किसी विवाद में पीड़ित पक्ष के दावा जताने की सीमा तय करता है।

हिंदू पक्षकारों के दावे के ख़िलाफ़ मुस्लिम पक्ष इस क़ानून के हवाले से ये दावा कर रहे थे कि सदियों से वो विवादित जगह उनके क़ब्ज़े में है और इतना लंबा समय गुज़र जाने के बाद हिंदू पक्षकार इस पर दावा नहीं जता सकते। इसके बाद रिटायर्ड जज देवकीनंदन अग्रवाल इस मुकदमे में बतौर रामलला की बाल्यावस्था के दोस्त बनकर शामिल हो गए थे। राम के दोस्त देवकीनंदन अग्रवाल के इस मुकदमे के पक्षकार बनते ही यह मुकदमा परिसीमन कानून के दायरे से बाहर आ गया और कानूनी दांवपेंच के गलियारे में इस मुकदमें ने रफ्तार पकड़ ली।

 देवताओं के लिए सुरक्षा

पहला ज्ञानवापी मामला 1991 में दर्ज किया गया था। अगस्त 2021 में दर्ज किए मामले को लेकर सुधीर त्रिपाठी पूजा ही एकमात्र दलील नहीं है। हम अपने प्रत्यक्ष और अप्रत्याक्ष (दृश्य और अदृश्य) देवताओं की सुरक्षा भी मांग रहे हैं। त्रिपाठी  कहते हैं कि काशी विश्वनाथ मंदिर परिसर के भीतर ही आदि विश्वेश्वर, श्रृंगार गौरी, गणेश, हनुमान, गंगा और नंदी सभी मामले मैं लड़ रहा हूं।”

याचिकाकर्ता कौन हैं? 

राखी सिंह और चार अन्य महिलाओं ने मस्जिद की पश्चिमी दीवार से लगी श्रृंगार गौरी की पूजा का अधिकार मांगा है।

वाराणसी के शीतला मंदिर के महंत शिवप्रसाद पाण्डेय ने आदि विश्वेश्वर की पूजा का अधिकार मांगा है।

डोम राजा परिवार (वाराणसी में श्मशान के राजा, जिनका आशीर्वाद घाटों पर हिंदू के शांतिपूर्ण दाह संस्कार के लिए अपरिहार्य माना जाता है) के एक याचिकाकर्ता ने कहा है कि वह एक नंदी भक्त है। वहाँ माँ गंगा, “भगवान आदि विश्वेश्वर के भक्त” हैं।

सत्यम त्रिपाठी ने अपने भगवान की पूजा करने से रोके जाने के खिलाफ अपील की।

आस्था के कारणों से ज्यादा महत्वपूर्ण है ‘शिवलिंग’

हिंदू याचिकाकर्ताओं के तर्कों के लिए किसी भी चीज़ से अधिक महत्वपूर्ण और, जैसा कि मैं समझता हूं, पूरा मामला यह दावा है कि मस्जिद के अंदर पाया गया एक ढांचा एक शिवलिंग है। मुस्लिम प्रतिवादियों ने कहा है कि यह एक फव्वारा है। ये इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसकी उत्पत्ति निर्धारित करेगी कि दो कानूनी प्रश्न किस दिशा में जाते हैं। सबसे पहले पूजा स्थल अधिनियम, 1991 पूजा के स्थान को बदलने या उसके “धार्मिक चरित्र” को बदलने की अनुमति नहीं देता है जो 15 अगस्त, 1947 से अस्तित्व में था। दूसरा, बाबरी मस्जिद मामले की तरह अगर देवताओं की ओर से दोस्त और भक्त के माध्यम से मामले दर्ज किए जाते हैं तो उस स्थान के भीतर न्यायिक व्यक्ति को स्थापित करना होगा जहां पूजा का अधिकार मांगा गया है।

त्रिपाठी कहते है कि अधिनियम यहां लागू नहीं होगा, ”हैं। वो बताते हैं कि ये कहता है कि मंदिरों और मस्जिदों की प्रकृति नहीं बदली जाएगी। जो 1947 में जैसे थे, वैसे ही रहेंगे। लेकिन अगर 1947 में यह मंदिर होता, तो यह मंदिर ही रहेगा। 1947 में यह कैसे मंदिर था? इस सवाल के जवाब में वो कहते हैं कि शिवलिंग (मस्जिद) के अंदर था। मन्दिर की मीनारों को तोड़कर गुम्बद बनाए गए। मंदिर की संरचना को लेकर त्रिपाठी कहते हैं, “यह एक मंदिर है  कि इसकी संरचना को डेटिंग करने की कोई आवश्यकता नहीं है।

लेकिन अगर मस्जिद बनने से पहले किसी मंदिर में शिवलिंग होता तो यह 1669 से भी पुराना होता (जिस वर्ष मंदिर को गिराया गया माना जाता है), तो यह एक मंदिर था, यह एक मंदिर माना जाएगा। यह कितना पुराना था, यह जानना जरूरी नहीं है। त्रिपाठी कहते हैं कि वहां शिवलिंग है? हमारी समझ से डेटिंग की कोई जरूरत नहीं हैं।

 

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