नीतीश कुमार क्यों बार-बार पाला बदल लेते हैं?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
बिहार की राजनीति ने लोकसभा चुनाव से ठीक पहले देश को चौंका दिया है। देश की राजनीति को अक्सर राह दिखाने वाले बिहार में जो ताजा उलट-पलट हुई है, उसके तीन प्रमुख कारण हैं। पहला बड़ा कारण तो यही है कि जनता दल यूनाइटेड के अध्यक्ष व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अच्छा अनुभव नहीं कर रहे थे। उन्हें यह लग रहा था कि उन्होंने महाविपक्षी गठबंधन बनाने की पहल की, तमाम विपक्षी नेताओं के बीच उनका कद बड़ा है, तो इंडिया ब्लॉक में उन्हें एक अहम स्थान मिलेगा।
पिछले साल जून के महीने महागठबंधन के लिए शुरुआत करने के बाद कई महीने उन्होंने इंतजार किया, पर उन्हें लगने लगा था कि विपक्षी गठबंधन में दूसरे नेताओं की तुलना में उन्हें बड़ी हैसियत हासिल नहीं हो रही है, उन्हें न प्रधानमंत्री के चेहरे के रूप में देखा जा रहा है और न संयोजक का पद दिया जा रहा है, तब वह बेचैन हो गए।
वह मान रहे थे कि उनकी छवि चूंकि विपक्षी गठबंधन के बाकी नेताओं से अच्छी है, न भ्रष्टाचार का आरोप है, न परिवारवाद का दाग है, शासन में लगातार बने रहने का अनुभव भी है, तो उन्हें स्वाभाविक ही इंडिया ब्लॉक में आगे रखा जाएगा। वह मान रहे थे कि तमाम सियासी समीकरण उनके पक्ष में हैं, इसलिए इंडिया ब्लॉक उन्हें सर्वसम्मति से प्रधानमंत्री पद के लिए आगे कर देगा, पर जब ऐसा होता नहीं दिखा, तब नीतीश कुमार ने अलग होने का फैसला कर लिया।
दूसरी बात, उन्हें लगने लगा कि ममता बनर्जी साथ नहीं दिखाई पड़ती हैं और वह कांग्रेस से भी नाराज हैं। सीटों के बंटवारे में भी देरी हो रही। उन्हें जब लगने लगा कि इंडिया ब्लॉक बहुत मजबूती से नरेंद्र मोदी का मुकाबला नहीं कर सकेगा,तब उन्होंने जाने का फैसला लिया। कुल मिलाकर, उन्हें लग गया कि विपक्षी गठबंधन में रहने से अब उन्हें कोई फायदा नहीं होगा, तो वह भाजपा के साथ आ खड़े हुए। भाजपा के साथ रहने से एक बात की तो गारंटी है कि वह मुख्यमंत्री बने रहेंगे और केंद्र में भी भागीदारी मिल जाएगी।
तीसरी बात, जिसका जिक्र नीतीश कुमार बीच-बीच में करते हैं, हालांकि, उसे मैं बहुत अहमियत नहीं देता। वह फिर भ्रष्टाचार और परिवारवाद की चर्चा कर चुके हैं। वैसे भी, लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल पर इन आरोपों के बावजूद वह दो बार साथ खड़े हो चुके हैं। खैर, आने वाले दिनों में यही कहा जाएगा कि इंडिया ब्लॉक में तवज्जो न मिलने की वजह से ही नीतीश कुमार ने गठबंधन बदला है।
अब नीतीश कुमार ने जिस तरह से पाला बदला है, उससे दो-तीन चीजें स्पष्ट हो गई हैं। पहला, इंडिया ब्लॉक के लिए यह बड़ा झटका है, उसे न सिर्फ बिहार में, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर नुकसान हुआ है। अवधारणा के तौर पर भी और चुनावी गणित के तौर पर भी देखें, तो यह बड़ा झटका है। इसका एनडीए को बड़ा फायदा होता दिखता है, क्योंकि यदि हम 2019 के चुनाव को देखें, तो एनडीए ने 40 में 39 सीटें जीती थीं, तब नीतीश कुमार एनडीए के साथ थे। नीतीश कुमार अगर साथ नहीं आते, तो इस बार एनडीए को निश्चित रूप से नुकसान होता।
भाजपा को पिछली बार 17 सीटें मिली थीं, इस बार वह इतनी ही सीटों पर जीतती दिख रही थी, पर नीतीश कुमार के साथ आने से निश्चित ही एनडीए को मजबूती मिली है। नीतीश कुमार की पार्टी एनडीए में भाजपा की सबसे बड़ी सहयोगी पार्टी बन गई है। अब भाजपा को यह फायदा होता दिख रहा है कि कमंडल तो साथ था ही, अब मंडल भी साथ आ गया है। जिस प्रकार से अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा का कार्यक्रम हुआ है, उससे भाजपा के पक्ष में माहौल बना हुआ है।
जिस तरह से भाजपा ने जननायक कर्पूरी ठाकुर के लिए भारत रत्न का ऐलान किया है और अब जब नीतीश कुमार साथ आ जाएंगे, तो भाजपा को ओबीसी वोटों का भी बहुत फायदा होगा। पिछले चुनावों को अगर देखें, तो लोअर ओबीसी का वोट काफी हद तक भाजपा की झोली में गया था। अब जब जद-यू और भाजपा साथ आ गए हैं, तो उनका मत प्रतिशत बढ़ेगा। एनडीए को आगामी लोकसभा चुनाव में बढ़त मिलेगी। अब भाजपा की अपनी सीटें बढ़ने की गुंजाइश भी बढ़ गई है।
दूसरी ओर, इंडिया ब्लॉक को अब बिहार में सीटों की तो ज्यादा उम्मीद नहीं होगी और मत प्रतिशत का भी नुकसान होगा। इंडिया ब्लॉक में राजद, कांग्रेस और वामपंथी पार्टियां ही रह गई हैं। इसी तरह का गठबंधन यूपीए के रूप में पिछले चुनाव में भी था, जिसका प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा था और इस बार भी वैसी ही स्थिति बनती दिख रही है। जो नेता कप्तान बनता दिख रहा था, वही टीम छोड़कर चला गया। जो लोग इंडिया ब्लॉक से उम्मीद लगाए हुए थे, उनका मनोबल कम हो जाएगा। ध्यान रहे, हारती दिख रही टीम को जनता भी वोट देने से बचती है।
उधर, ममता बनर्जी ने ऐलान कर ही दिया है कि अलग चुनाव लड़ेंगी। आम आदमी पार्टी ने भी इशारा कर दिया है कि पंजाब में सीटों का बंटवारा नहीं होगा, तब ऐसे इंडिया ब्लॉक से लोग कितनी उम्मीद लगाएंगे? हां, राजद अपना अधिकतम 28 या 30 वोट प्रतिशत बचाए रख सकती है, पर सीटों के नजरिए से उसे फायदा मुश्किल लगता है।
हो सकता है, इंडिया ब्लॉक अब भी बिहार में 40 प्रतिशत तक वोट ले आए, पर एनडीए 50 से 60 प्रतिशत वोटों तक पहुंच सकता है। 37 प्रतिशत लोअर-ओबीसी है, अगर सवर्ण वोट को 13 प्रतिशत भी मान लें, तो 50 प्रतिशत हो जाता है। अपर-ओबीसी के भी अगर 8 प्रतिशत वोटों पर ध्यान दें, तो यह भी एनडीए को मिल सकता है। चिराग पासवान की पार्टी के साथ ही जीतन राम मांझी की पार्टी भी एनडीए के साथ है।
बेशक, ज्यादातर जातियों के वोटों में नए सिरे से गोलबंदी हो सकती है, पर ज्यादा फायदा एनडीए को होगा। इंडिया ब्लॉक 35 प्रतिशत वोटों को लुभाने की कोशिश करेगा और एनडीए की निगाह 65 प्रतिशत वोटों पर होगी, अत: जब इंडिया ब्लॉक का आधार सिमट गया है, तब उसे बहुत ज्यादा मेहनत करनी पड़ेगी। एनडीए बिहार में आगामी चुनाव में 50 प्रतिशत वोट के करीब दिखाई देने लगा है।
खैर, चुनावी समीक्षा जारी रहेगी। नीतीश कुमार तीसरी बार भाजपा के साथ आए हैं। जब वह राजद का साथ छोड़ दूसरी बार भाजपा के साथ आए थे, तब उसके पीछे ज्यादा मजबूत कारण थे, जिन्हें लोगों ने भी स्वीकार किया था, पर इस बार उनके बताए कारणों को लोग कैसे लेते हैं, यह देखने वाली बात होगी।
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