जज अपनी संपत्ति सार्वजनिक क्यों नहीं करते?

जज अपनी संपत्ति सार्वजनिक क्यों नहीं करते?

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

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फरवरी 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सभी सांसदों और विधायकों को चुनावों के दौरान न सिर्फ अपनी संपत्ति घोषित करनी होगी। बल्कि अपनी आमदनी का सोर्स भी बताना होगा। लेकिन क्या आपको पता है कि जो जज नेताओं को लेकर ये सारे फैसले सुनाते हैं। वही जज अपनी संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक नहीं करते हैं।

दिल्ली हाई कोर्ट के न्यायाधीश न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के आवास पर नोटों के बंडल मिलने से भारत की उच्च न्यायपालिका में भ्रष्टाचार को लेकर चिंताएँ बढ़ गई हैं। अन्य बातों के अलावा, इसने न्यायाधीशों की संपत्ति और देनदारियों के सार्वजनिक  प्रकटीकरण के लिए तर्क देने वालों को बढ़ावा दिया है। अन्य लोक सेवकों के विपरीत, न्यायाधीश इस जानकारी को सार्वजनिक करने के लिए बाध्य नहीं हैं, और अधिकांश मामलों में, उन्होंने ऐसा नहीं किया है।

न्यायाधीशों द्वारा संपत्ति की घोषणा के प्रावधान क्या हैं?

इस वर्ष 1 मार्च तक सभी हाई कोर्ट में कुल मिलाकर 770 न्यायाधीश हैं। इनमें से सात दिल्ली, पंजाब और हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, मद्रास, छत्तीसगढ़, केरल और कर्नाटक हाई कोर्ट के केवल 97 न्यायाधीशों ने सार्वजनिक रूप से अपनी संपत्ति और देनदारियों की घोषणा की है। यह सभी उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के 13% से भी कम है।

देश के अधिकांश हाई कोर्ट अपने न्यायाधीशों की संपत्ति और देनदारियों के सार्वजनिक प्रकटीकरण के खिलाफ रहे हैं। उत्तराखंड हाई कोर्ट  ने 2012 में एक प्रस्ताव पारित किया था जिसमें कहा गया था कि वो न्यायाधीशों द्वारा संपत्ति के प्रकटीकरण को सूचना के अधिकार अधिनियम के दायरे में लाने पर कड़ी आपत्ति जताता है।

न्यायाधीशों द्वारा संपत्ति की घोषणा के प्रावधान क्या हैं?

न्यायाधीशों के विपरीत, लोक सेवकों को अक्सर अपनी संपत्ति घोषित करने का आदेश दिया जाता है और यह जानकारी अक्सर आम नागरिकों के लिए आसानी से उपलब्ध होती है। 2005 में आरटीआई अधिनियम के पारित होने से इस संबंध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उदाहरण के लिए, आरटीआई अधिनियम ने सरकारी अधिकारियों को अपने कैडर नियंत्रण प्राधिकरणों को सालाना अपनी संपत्ति घोषित करने के लिए प्रेरित किया है।

अधिकांश मामलों में, ये सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध हैं। गुजरात, केरल और मध्य प्रदेश जैसे कई राज्यों में राज्य स्तर के नौकरशाहों द्वारा अपनी संपत्ति घोषित करने के लिए सख्त प्रावधान हैं। ये भी अक्सर सार्वजनिक डोमेन में पाए जा सकते हैं, या आरटीआई आवेदनों के माध्यम से प्राप्त किए जा सकते हैं।

इसे लेकर संसद द्वारा क्या कहा गया

संसद की कार्मिक, लोक शिकायत और विधि एवं न्याय संबंधी समिति ने 2023 में सिफारिश की थी कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की संपत्ति और देनदारियों का अनिवार्य खुलासा सुनिश्चित करने के लिए कानून बनाया जाना चाहिए। लेकिन इस सिफारिश पर अभी तक कोई प्रगति नहीं हुई है। वर्ष 2014 में सरकार ने जजों की नियुक्ति में पारदर्शिता और जवाबदेही लाने के लिए नेशनल ज्यूडिशियल अपॉइंटमेंट्स कमीशन (एनजीएसी) की स्थापना की कोशिश की थी लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे 2015 में असंवैधानिक घोषित कर दिया, जिससे कोलेजियम सिस्टम बरकरार रहा।

न्यायाधीशों की संपत्ति को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने क्या फैसला किया

1997 में भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जेएस वर्मा की अध्यक्षता में हुई बैठक में सुप्रीम कोर्ट ने एक प्रस्ताव पारित किया था, जिसमें कहा गया था: प्रत्येक न्यायाधीश को अपने नाम पर अपने जीवनसाथी या उन पर निर्भर किसी अन्य व्यक्ति के नाम पर अचल संपत्ति या निवेश के रूप में रखी गई सभी संपत्तियों की घोषणा मुख्य न्यायाधीश के समक्ष करनी चाहिए।

बाद में, 8 सितंबर, 2009 को आयोजित एक बैठक में सुप्रीम कोर्ट की पूर्ण पीठ ने न्यायालय की वेबसाइट पर न्यायाधीशों की संपत्ति घोषित करने का संकल्प लिया, लेकिन साथ ही यह भी कहा कि यह “पूरी तरह से स्वैच्छिक आधार पर” किया जा रहा है। सर्वोच्च न्यायालय ने एक प्रस्ताव पारित किया था जिसमें जजों को अपनी संपत्ति का विवरण सार्वजनिक करने के लिए प्रोत्साहित किया गया था। इसके तहत कई जज अपनी संपत्ति की जानकारी स्वेच्छा से सर्वोच्च न्यायालय की वेबसाइट पर प्रकाशित करते हैं। लेकिन इसको लेकर कोई अनिवार्य नियम नहीं है।

महाभियोग से आज तक किसी को भी नहीं हटाया गया 

आज तक महाभियोग से किसी भी जज को नहीं हटाया गया है। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस रहे दीपक मिश्रा को हटाने के लिए प्रस्ताव लाने के लिए दिए गए नोटिस को उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने खारिज कर दिया था। वहीं 1993 में जस्टिस वी. रामास्वामी के खिलाफ जब प्रस्ताव लाया गया था, तब वह लोकसभा में पास नहीं हो पाया था। जस्टिस रामास्वामी के लिए सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल संसद में पेश हुए थे। इसी तरह जस्टिस पीडी दिनाकरण के मामले में पहल हुई थी, लेकिन तभी दिनाकरण ने इस्तीफा दे दिया था।

जजों को हटाने का अधिकार संसद के पास है

किसी भी संवैधानिक कोर्ट के जस्टिस पर मिस कंडक्ट का अगर आरोप लगता है और संबंधित जज अगर इस्तीफा नहीं देते हैं तो इन-हाउस जांच शुरू की जा सकती है, जो संसद में महाभियोग की दिशा में पहला कदम हो सकता है। सुप्रीम कोर्ट के 1999 में तय किए गए इन-हाउस प्रक्रिया के तहत सबसे पहले सीजेआई आरोपी जस्टिस से स्पष्टीकरण मांगते हैं। यदि स्पष्टीकरण असंतोषजनक होता है, तो एक जांच पैनल गठित किया जाता है। उसमें एक सुप्रीम कोर्ट जज और दो हाई कोर्ट के जज होते हैं।

सुप्रीम कोर्ट के टॉप फाइव जज कलीजियम में शामिल होते हैं। 1999 में तय किए गए इन-हाउस प्रक्रिया के तहत जांच के वाद अगर जज जिम्मेदार पाए जाते हैं तो कलीजियम उस जस्टिस को हटाने के लिए महाभियोग चलाने के लिए केंद्र को सिफारिश भेजती है। इसके साथ ही ट्रांसफर के लिए सिफारिश करती है। नियम के तहत सुप्रीम कोर्ट देश भर के हाई कोर्ट का ऐडमिस्ट्रेटिव हेड नहीं होता है।

यानी सुप्रीम कोर्ट के पास ऐडमिनिस्ट्रेटिव जरिडिक्शन नहीं होता है। सुप्रीम कोर्ट कलीजियम ट्रांसफर कर सकती है या फिर सरकार को सिफारिश कर सकती है कि महाभियोग चलाया जाए। जहां तक महाभियोग का सवाल है तो वह फिर संसद के क्षेत्र का मामला है। हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस को विना महाभियोग के नहीं हटाया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस, चीफ जस्टिस, हाई कोर्ट के जस्टिस को संविधान के प्रावधान के तहत प्रस्ताव लाकर हटाया जा सकता है।

 

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