बसपा प्रमुख मायावती निष्क्रिय क्यों हो गई हैं?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

हम 2024 के संसदीय चुनावों की ओर बढ़ रहे हैं तो बहुत सारे लोग एक सवाल पूछ रहे हैं : मायावती कहां गुम हो गई हैं? वे ऐसी राजनेत्री हैं, जो यूपी की पहली महिला दलित मुख्यमंत्री बनीं और वह भी चार बार। 2007 में तो उन्होंने पूर्ण बहुमत प्राप्त किया था। लेकिन आज लगता है जैसे वे राजनीतिक अज्ञातवास में चली गई हों। 1995 में जब वे पहली बार यूपी की मुख्यमंत्री बनी थीं तो वे इस राज्य की सबसे युवा सीएम थीं। 1989 में जब वे बिजनौर से सांसद चुनी गईं, तब वे मात्र 33 वर्ष की थीं। तब से वे लोकसभा और राज्यसभा की अनेक मर्तबा सदस्य रह चुकी हैं।

मायावती के पिता यूपी के दादरी के निकट एक गांव के डाकघर में काम करते थे। उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखते हुए दिल्ली के कालिंदी कॉलेज से ग्रैजुएशन किया और डीयू की लॉ फैकल्टी से कानून की डिग्री हासिल की। उन्होंने मेरठ यूनिवर्सिटी से बी-एड भी किया। 1977 में जब वे सिविल सेवाओं की परीक्षाओं की तैयारी कर रही थीं, तब उनकी भेंट उनके मेंटर कांशी राम से हुई। कांशी राम का दृष्टिकोण सामाजिक न्याय वाले भारत के निर्माण का था और डॉ. मनमोहन सिंह ने उचित ही उन्हें हमारे समय के महानतम सामाजिक सुधारकों में से एक बताया था। कांशी राम को मायावती में सम्भावनाएं नजर आईं।

मायावती आईएएस अधिकारी बनना चाहती थीं, लेकिन कांशी राम ने उनसे कहा कि अगर तुम राजनीति में प्रवेश करोगी तो अनेक आईएएस तुम्हें रिपोर्ट करेंगे। उनकी भविष्यवाणी नाटकीय रूप से सही साबित हुई। 1984 में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की स्थापना की गई। 1989 तक मायावती लोकसभा में प्रवेश कर चुकी थीं। मात्र छह वर्ष बाद वे यूपी की मुख्यमंत्री बन गईं। 2001 में कांशी राम ने घोषणा की कि ‘बहनजी’ उनकी उत्तराधिकारी होंगी और वे बसपा की अध्यक्ष बनीं।

मायावती ने जिस तेजी से राजनीति में सफलता की सीढ़ियां चढ़ीं, वह चमत्कारिक लग सकता है, लेकिन इसका एक कारण था। भारत में अनुसूचित जातियां बहुत बड़ा वोटबैंक हैं और उनकी आबादी 25 करोड़ के आसपास है। यूपी में तो 17% आबादी दलितों की है, जबकि यादव 8% ही हैं। पंजाब- जहां कांशी राम का जन्म हुआ था- में तो दलितों की 32% आबादी है। यह देश में सर्वाधिक है। भारत की राष्ट्रीय राजनीति में अनुसूचित जातियों की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है।

मायावती इस वर्ग की सफलतम नेत्री हैं। लेकिन उनका काम अभी पूरा नहीं हुआ है। आरक्षण व अन्य साधनों के बावजूद आज भी दलितों का शोषण व अपमान किया जाता है और उन्हें हिंसा का शिकार बनना पड़ता है। मायावती से यह भूल हुई कि कांशी राम का बहुजन आंदोलन राष्ट्रीय था, लेकिन उसे उन्होंने मुख्यतया यूपी तक सीमित कर दिया। अब वे यूपी में भी हाशिए पर हैं।

उनके राजनीतिक निर्वासन की क्या वजह हो सकती है? 2007 से 2012 के दौरान अपने मुख्यमंत्रित्वकाल में उन्होंने कुशलतापूर्वक सरकार चलाई थी, राज्य में कानून-व्यवस्था की स्थिति सुधरी थी और दंगे, दुष्कर्म आदि की घटनाएं कम हुई थीं। उन्होंने गरीबों के लिए अनेक योजनाएं चलाईं। पिछली सरकारों की तुलना में उनके कार्यकाल में भ्रष्टाचार भी कम हुआ। उन्होंने अभी तक उपेक्षित रहे पिछड़ा वर्ग के प्रतीकों को सम्मान देकर एक ऐतिहासिक नैरेटिव में भी सुधार किया। 2007-08 में उन्होंने 26 करोड़ का आयकर चुकाया था, जो कि देश में सर्वाधिक में से एक था।

सीबीआई ने आय से अधिक सम्पत्तियों के मामले में उन पर मामला दर्ज किया, लेकिन मायावती ने उन्हें प्राप्त हुए अनुदानों के सारे विवरण प्रस्तुत कर दिए। सुप्रीम कोर्ट ने उनके विवरणों को मान्यता दी। मायावती जिस आलीशान तरीके से अपने जन्मदिन मनाती थीं, उस पर आलोचकों ने अंगुली उठाई थी, लेकिन आज ऐसा कौन-सा राजनेता है, जिसे अपने पर्सनैलिटी कल्ट को बढ़ावा देने के लिए मितव्ययिता का परिचय देने का श्रेय दिया जा सकता हो?

ऐसे में प्रश्न उठता है कि मायावती राजनीतिक रूप से पूरी तरह निष्क्रिय क्यों हो गई हैं? अफवाहों की मानें तो भाजपा के पास उनकी ऐसी सम्पत्तियों की जानकारी है, जिसके लिए उन्हें दोषी ठहराया जा सकता है। इसके चलते उन्होंने बैकसीट पर रहने का निर्णय किया है। लेकिन उनका दलित, ब्राह्मण, मुसलमान वाला संयोजन आज भी एक चुनाव जिताऊ फॉर्मूला है। पिछले लोकसभा चुनाव में बसपा ने 10 सीटें जीती थीं, जबकि उनके गठबंधन सहयोगी समाजवादी पार्टी को 5 ही सीटें मिल सकी थीं। वे अब भी भारत की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। पर सवाल है कि क्या वे 2024 की चुनौती स्वीकारेंगी?

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