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पराली दहन से निपटने हेतु जैव-अपघटक क्यों आवश्यक है? - श्रीनारद मीडिया

पराली दहन से निपटने हेतु जैव-अपघटक क्यों आवश्यक है?

पराली दहन से निपटने हेतु जैव-अपघटक क्यों आवश्यक है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

दिल्ली सरकार ने पराली दहन से निपटने हेतु खेतों में जैव-अपघटकों का छिड़काव शुरू किया है। हालाँकि किसानों के अनुसार, माइक्रोबियल विलयन की प्रभावशीलता काफी हद तक इसके उपयोग के समय पर निर्भर करती है।

  • हालाँकि दिल्ली में प्रदूषण के स्तर में पराली जलाने का विशेष योगदान नहीं है तथा हाल के वर्षों में इसकी न्यूनतम संख्या दर्ज़ की गई है।

पराली दहन की समस्या:

  • परिचय:
    • पराली दहन दक्षिण पश्चिम मानसून की वापसी के साथ सितंबर के आखिरी सप्ताह से नवंबर तक गेहूँ की बुआई हेतु धान की फसल के अवशेषों को खेत से साफ करने की एक विधि है।
    • यह आमतौर पर उन क्षेत्रों में आवश्यक होता है जहाँ संयुक्त कटाई विधि का उपयोग किया जाता है जो फसल के अवशेष छोड़ देता है।
    • यह पूरे उत्तर पश्चिम भारत में अक्तूबर और नवंबर के माह में की जाने वाली सामान्य प्रक्रिया है, लेकिन मुख्य रूप से यह पंजाब, हरियाणा एवं उत्तर प्रदेश में की जाती है।
  • पराली दहन के प्रभाव: 
    • प्रदूषण: वायुमंडल में बड़ी मात्रा में विषैले प्रदूषक उत्सर्जित होते हैं जिनमें मीथेन (CH4), कार्बन मोनोऑक्साइड (CO), वाष्पशील कार्बनिक यौगिक (VOC) और कार्सिनोजेनिक पॉलीसाइक्लिक एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन जैसी हानिकारक गैसें होती हैं।
      • ये प्रदूषक वातावरण में फैल जाते हैं तथा भौतिक और रासायनिक परिवर्तन होने के बाद ये अंततः धुंध की मोटी परत का रूप धारण करके मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं।
    • मृदा उर्वरता: भूमि पर भूसी/पराली जलाने से मृदा के पोषक तत्त्व नष्ट हो जाते हैं, जिससे मृदा की उर्वरता क्षीण हो जाती है।
    • ऊष्मा प्रवेश: पराली जलाने से उत्पन्न उष्मा के मृदा में प्रवेश के कारण आवश्यक नमी और उपयोगी सूक्ष्मजीव नष्ट हो जाते हैं।
  • पराली दहन के विकल्प:
    • पराली का स्व-स्थानिक उपचार: उदाहरण के लिये, ज़ीरो-टिलर मशीन द्वारा फसल अवशेष प्रबंधन और जैव-अपघटकों का उपयोग।
    • गैर-स्थानिक(ऑफ-साइट) उपचार: उदाहरण के लिये, पशु चारे के रूप में चावल के भूसे का उपयोग।
    • प्रौद्योगिकी का उपयोग: उदाहरण के लिये टर्बो हैप्पी सीडर (THS) मशीन, जो पराली को उखाड़ सकती है और साफ किये गए क्षेत्र में बीजों की बुवाई भी कर सकती है।

पराली दहन से निपटने हेतु जैव-अपघटक:

  • परिचय:
    • जैव-अपघटकों को फसल अवशेषों की प्राकृतिक अपघटन प्रक्रिया को तेज़ करने के लिये डिज़ाइन किया गया है।
    • यह आम तौर पर कवक, बैक्टीरिया और एंज़ाइम जैसे विभिन्न सूक्ष्मजीवों का मिश्रण होता है जो पादप सामग्री के कार्बनिक पदार्थों में अपघटन के लिये मिलकर काम करते हैं तथा मृदा को समृद्ध करते हैं।
    • उदाहरण:
      • बैक्टीरिया: बैसिलस, क्लॉस्ट्रिडियम, ई. कोलाई, साल्मोनेला
      • कवक: मशरूम, फफूँद, यीस्ट
      • केंचुआ 
      • कीट: भृंग, मक्खियाँ, चींटियाँ, कीड़े
      • आर्थ्रोपोड्स: मिलिपेडेस, दीमक (वुडलाइस)
  • पूसा जैव-अपघटक:
    • यह एक कवक-आधारित तरल विलयन है जो पराली को इतना गला/सड़ा सकता है कि इसे मिट्टी के साथ मिलाकर खाद के रूप में आसानी से उपयोग किया जा सके।
      • इसमें कवक 30-32 डिग्री सेल्सियस पर पनपता है, जो कि धान की कटाई और गेहूँ की बुवाई के लिये आवश्यक प्रचलित तापमान है।
    • यह धान के भूसे में सेल्यूलोज़, लिग्निन और पेक्टिन को पचाने योग्य एंज़ाइम का उत्पादन करता है।
      • यह भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (Indian Council of Agricultural Research- ICAR) द्वारा विकसित किया गया है और दिल्ली के पूसा स्थित ICAR परिसर के नाम पर रखा गया है।
    • यह फसल अवशेष, पशु अपशिष्ट, गोबर और अन्य कचरे को तेज़ी से जैविक खाद में परिवर्तित करता है।
  • लाभ:
    • यह जैव-अपघटक मृदा की उर्वरता और उत्पादकता में सुधार करता है क्योंकि पराली अन्य फसलों के लिये खाद के रूप में उपयोगी होती है, साथ ही इससे भविष्य में फसलों के लिये उर्वरक की आवश्यकता कम होती है।
    • यह पराली के सही उपयोग की एक कुशल, प्रभावी, सस्ती, साध्य एवं व्यावहारिक तकनीक है।
    • यह पर्यावरण के अनुकूल और पर्यावरण की दृष्टि से उपयोगी तकनीक है तथा स्वच्छ भारत मिशन के लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायक सिद्ध होगी।
  • प्रभावकारिता:
    • माइक्रोबियल विलयन का उद्देश्य फसल के बाद खेत में बचे धान के भूसे को विघटित करना है। कटाई के बाद इसका छिड़काव करना होगा, मिट्टी में जुताई करनी होगी और 20-25 दिनों की अवधि में भूसे को नष्ट करने के लिये हल्की सिंचाई करनी होगी।
    • किसानों ने डीकंपोजर की प्रभावशीलता को अधिकतम करने के लिये फसल की अवधि के साथ छिड़काव प्रक्रिया को संरेखित करने के महत्त्व पर ज़ोर दिया है।
    • फसल चक्र, श्रम उपलब्धता और उगाई गई फसल के प्रकार जैसे कारकों का किसानों के लिये डीकंपोज़र की प्रासंगिकता एवं उपयोगिता पर प्रभाव पड़ता है।
    • माइक्रोबियल विलयन की प्रभावशीलता मौसम की स्थिति पर भी निर्भर करती है, सितंबर और अक्तूबर में कम बारिश वाले महीने इसके अनुप्रयोग के लिये अनुकूल होते है।

पराली दहन का निपटान करने के लिये अन्य पहलें:

  • पंजाब सरकार, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार (Government of National Capital Territory of Delhi- GNCTD) ने पराली दहन होने वाले वायु प्रदूषण की समस्या के समाधान के लिये वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग (Commission for Air Quality Management- CAQM) द्वारा तैयार ढाँचे के आधार पर विस्तृत निगरानी योग्य कार्य योजनाएँ विकसित की हैं।

आगे की राह

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