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देश में भविष्य के लिये वनों का संरक्षण क्यों जरुरी है? - श्रीनारद मीडिया

देश में भविष्य के लिये वनों का संरक्षण क्यों जरुरी है?

देश में भविष्य के लिये वनों का संरक्षण क्यों जरुरी है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

भारत में वन क्षेत्र देश के कुल भूमि क्षेत्र (वृक्ष आवरण सहित) के लगभग 24.62% को कवर करते हैं और विश्व के कुछ सर्वाधिक जैव विविधता वाले वन क्षेत्रों में शामिल हैं। वे कई महत्त्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र सेवाएँ प्रदान करते हैं, जैसे मृदा कटाव से संरक्षण, जल चक्र को विनियमित करना और विभिन्न प्रकार के पादपों एवं जंतु प्रजातियों के लिये आवास प्रदान करना।

लेकिन भारत में वन अवैध कटाई, खनन और कृषि एवं शहरी विकास के लिये भूमि रूपांतरण जैसी विभिन्न गतिविधियों से एक खतरे का भी सामना कर रहे हैं।

भारत सरकार ने वनों की सुरक्षा एवं संरक्षण के लिये संरक्षित क्षेत्रों के निर्माण और सतत् वन प्रबंधन अभ्यासों को बढ़ावा देने जैसे कई कदम उठाये हैं।

हालाँकि, इन महत्त्वपूर्ण पारिस्थितिक तंत्रों के दीर्घकालिक अस्तित्व को सुनिश्चित करने के लिये और अधिक प्रयास किये जाने की आवश्यकता है।

भारत के लिये वनों का महत्त्व  

  • पारिस्थितिकी तंत्र सेवाएँ: भारत में वन महत्त्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र सेवाएँ प्रदान करते हैं, जैसे जल विनियमन, मृदा संरक्षण और कार्बन प्रच्छादन (carbon sequestration)।
    • उदाहरण के लिये, पश्चिमी घाट के वन दक्षिणी राज्यों के जल चक्र को विनियमित करने और मृदा कटाव से बचाव में मदद करते हैं।
  • जैव विविधता का केंद्र: भारत विभिन्न प्रकार के पादप एवं जंतु प्रजातियों का घर है, जिनमें से कई केवल भारत के वनों में पाए जाते हैं।
    • उदाहरण के लिये, बंगाल की खाड़ी में स्थित सुंदरवन मैंग्रोव वन रॉयल बंगाल टाइगर का घर है।
  • आर्थिक मूल्य: भारत के वन इमारती लकड़ी, गैर-इमारती वन उत्पाद और पर्यटन सहित कई प्रकार के आर्थिक लाभ प्रदान करते हैं।
    • उदाहरण के लिये, पूर्वोत्तर भारत के बाँस वन स्थानीय समुदायों के लिये आजीविका का एक प्रमुख स्रोत हैं, जबकि देश के राष्ट्रीय उद्यान एवं वन्यजीव अभयारण्य हर साल लाखों पर्यटकों को आकर्षित करते हैं।
  • सांस्कृतिक मूल्य: भारत के वनों का विभिन्न समुदायों के लिये उल्लेखनीय सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक मूल्य भी है, जो अपनी आजीविका एवं सांस्कृतिक प्रथाओं के लिये उन पर निर्भर हैं।
    • उदाहरण के लिये मध्य प्रदेश की गोंड जनजाति। 

  • वनों की कटाई और भूमि का क्षरण: भारत में वन अवैध कटाई, खनन और कृषि एवं शहरी विकास के लिये भूमि रूपांतरण जैसी विभिन्न गतिविधियों से खतरे का सामना कर रहे हैं।
    • इससे वनों की कटाई और भूमि के क्षरण की स्थिति बनी है, जिसका पर्यावरण पर तथा उन समुदायों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है जो अपनी आजीविका के लिये वनों पर निर्भर हैं।
  • जैव विविधता की हानि: वनों की कटाई और वनों को क्षति पहुँचाने वाली अन्य गतिविधियाँ जैव विविधता को भी क्षति पहुँचाती हैं , क्योंकि पादप एवं जंतु प्रजातियाँ अपने प्राकृतिक पर्यावास में अस्तित्व बनाए रखने में असमर्थ हो जाती हैं।
    • इसका समग्र रूप से पारिस्थितिकी तंत्र पर और साथ ही इन प्रजातियों पर निर्भर समुदायों की सांस्कृतिक प्रथाओं पर संचयी प्रभाव पड़ सकता है।
  • जलवायु परिवर्तन: जलवायु परिवर्तन के कारण उत्पन्न वन व्यवधान (जिनमें कीट प्रकोप, जलवायु प्रेरित प्रवासन के कारण आक्रामक प्रजातियों का आगमन, वनाग्नि एवं तूफान आदि शामिल हैं) के कारण वन उत्पादकता में कमी आती है और प्रजातियों के वितरण में परिवर्तन आता है।
    • वर्ष 2030 तक भारत में 45-64% वन जलवायु परिवर्तन और बढ़ते तापमान के प्रभावों का अनुभव कर रहे होंगे।
  • सिकुड़ता वन आवरण: भारत की राष्ट्रीय वन नीति के अनुसार, पारिस्थितिक स्थिरता बनाए रखने के लिये आदर्श रूप से कुल भौगोलिक क्षेत्र का कम से कम 33% वन क्षेत्र के अंतर्गत होना चाहिये।
    • लेकिन यह वर्तमान में देश की केवल 24.62% भूमि को ही कवर करता है और तेज़ी से सिकुड़ रहा है।
  • संसाधन तक पहुँच के लिये संघर्ष: स्थानीय समुदायों के हितों और व्यावसायिक हितों (जैसे फार्मास्यूटिकल उद्योग या लकड़ी उद्योग) के बीच प्रायः संघर्ष की स्थिति बनती है। इससे सामाजिक तनाव और यहाँ तक कि हिंसा की स्थिति भी बन सकती है, क्योंकि विभिन्न समूह वन संसाधनों तक पहुँच एवं उनके उपयोग के लिये संघर्षरत होते हैं।
  • वन संरक्षण के लिये सरकार की प्रमुख पहलें 
    • वन संरक्षण अधिनियम, 1980 
    • राष्ट्रीय वनीकरण कार्यक्रम पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 
    • अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 
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