Notice: Function _load_textdomain_just_in_time was called incorrectly. Translation loading for the newsmatic domain was triggered too early. This is usually an indicator for some code in the plugin or theme running too early. Translations should be loaded at the init action or later. Please see Debugging in WordPress for more information. (This message was added in version 6.7.0.) in /home/imagequo/domains/shrinaradmedia.com/public_html/wp-includes/functions.php on line 6121
राज्यों के लोक सेवा आयोगों को यूपीएससी की राह चलना जरूरी क्यों है? - श्रीनारद मीडिया

राज्यों के लोक सेवा आयोगों को यूपीएससी की राह चलना जरूरी क्यों है?

राज्यों के लोक सेवा आयोगों को यूपीएससी की राह चलना जरूरी क्यों है?

०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
priyranjan singh
IMG-20250312-WA0002
IMG-20250313-WA0003
previous arrow
next arrow
०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
priyranjan singh
IMG-20250312-WA0002
IMG-20250313-WA0003
previous arrow
next arrow

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

वर्ष1991 में जून की बात है। देश में दरकारी के दिन थे। सरकार जर-जेवर बेचकर खर्चा निकालने का जुगाड़ कर रही थी। मुल्क में मार्केट इकाेनॉमी की शुरुआत में अभी महीना-डेढ़ महीना बाकी था। लेकिन इससे पहले ही यूपीएससी के पर्चे की कीमतें बाजार तय करने लगा था।

9 जून, इतवार को सिविल सर्विस का पहला पर्चा होना था। यह पेपर एक दिन पहले शनिवार की सुबह दिल्ली में पंद्रह हजार रुपयों में बिका। मंडी सजी तो दोपहर तक लेवाल भी देवाल हो गए। होड़ा-होड़ ने भाव तोड़े। बारह हजार, आठ हजार, पांच हजार।

शाम होते-होते बोली तीन हजार तक छूटने लगी। दलाल छह महीने बाद होने वाली मुख्य परीक्षा के लिए पेशगी ऑर्डर भी ले रहे थे। पर उनकी बदकिस्मती से पर्चा अखबार वालों के हाथ लग गया। इम्तेहान से पहले पेपर हूबहू न्यूज-पेपर में छपा तो यूपीएससी को परीक्षा रद्द करनी पड़ी।

यूपीएससी की यह पहली बड़ी बदनामी थी। दामन पर पहला बड़ा छींटा। संघ लोक सेवा आयोग ने इससे सीख ली और ऐसा फिर से न हो, इस हेतु जरूरी इंतजाम किए। छिटपुट मामलों को छोड़ दें तो ऐसा करने में आयोग सफल भी रहा।

आज अभ्यर्थियों के बीच आयोग की विश्वसनीयता पर कोई प्रश्नचिह्न नहीं है। लेकिन सवालों से घिरे हैं राज्यों के लोक सेवा आयोग। ये आजादी के तुरंत बाद ही करप्शन के कीचड़ में उतरने लगे थे। जब यूपीएससी पर छींटे लगे, तब ये आकंठ डूबे थे।

नब्बे के दशक में हरियाणा स्टेट कमीशन के एक सदस्य ने पोल खोलते हुए रेटलिस्ट उजागर कर दी थी। उनकी मानें तो तब के हरियाणा में पांच हजार में चौकीदार की पोस्ट, आठ हजार में क्लर्क की नौकरी और लाख रुपए में तहसील की नायबी खरीदी जा सकती थी।

उन्हीं दिनों बिहार के भी भाव बाहर आए। तब हरियाणा के नायब तहसीलदार के सामने बिहार का डिप्टी कलेक्टर सस्ता पड़ता था। पैंसठ हजार का। डिप्टी एसपी के अस्सी हजार। ये सारे भाव-ताव उस दौर में सुर्खियां तो बने, लेकिन मोटे तौर पर सब कुछ पर्दे के पीछे था, इसलिए जनता का विश्वास उठा नहीं। लेकिन अब सभी जगह खुल्ला खेल फर्रुखाबादी हो चला है। नौकरियों की नीलामी की खबरें आती हैं। भाव छपने लगे हैं। हालांकि वन नेशन वन मार्केट अभी भी नहीं बना है। कर्नाटक महंगा है, राजस्थान सस्ता। फिर भी अनेकता में एकता खोजी जा सकती है।

पिछले बीस सालों में छह बड़े राज्यों के स्टेट कमीशंस के मुखिया जेल भेजे जा चुके हैं। मेम्बर कितने पकड़े गए, हिसाब रखना तक मुश्किल है। ऐसा भी हुआ है, जहां भगोड़े मेम्बर की गिरफ्तारी पर पुलिस को दस हजार का इनाम रखना पड़ा था।

पेपर लीक होने के इल्जाम लगने से पचासों बार पेपर रद्द किए गए, बीसियों बार नहीं भी किए गए। संविधान ने इन कमीशंस को मेरिट सिस्टम की पहरेदारी सौंपी थी। लेकिन बाड़ ही खेत को खाए जा रही है। वक्त की जरूरत है कि इन आयोगों को यूपीएससी की राह चलने को पाबंद किया जाए। इनका मुखिया या मेम्बर बनने के लिए भी लियाकत तय हो।

लोक सेवा आयोगों का काम राज्य की इमारत के लिए अच्छी ईंटें चुनकर देने का है। जनता की परवाह करें न करें, पर इसी तरह से अनगढ़ रोड़ी भरते रहे तो सरकारों के ढांचे ढहते देर नहीं लगेगी।

Leave a Reply

error: Content is protected !!