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हिंदू धर्म में मकर संक्रांति का विशेष महत्व क्यों है? - श्रीनारद मीडिया

हिंदू धर्म में मकर संक्रांति का विशेष महत्व क्यों है?

हिंदू धर्म में मकर संक्रांति का विशेष महत्व क्यों है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

 मकर संक्रांति का वेद और पुराणों में भी विशेष उल्लेख मिलता है. होली, दुर्गोत्सव, दीपावली, शिवरात्रि आदि की तरह ही मकर संक्रांति भी प्रकृति पर्व के रूप में प्रतिष्ठित है. मकर संक्रांति एक खगोलीय घटना भी है. कारण इससे जड़ और चेतन की दिशा तय होती है. संसार में सभी कुछ प्रकृति के नियम से संचालित है.

हमारी गति और स्थिति क्या है, सबकुछ प्रकृति पर ही निर्भर है. खगोलशास्त्र के अनुसार, सूर्य जब दक्षिणायन से उत्तरायण होते हैं या फिर पृथ्वी का उत्तरी गोलार्ध सूर्य की ओर मुड़ जाता है, उस दिन मकर संक्रांति का पर्व मनाया जाता है. यह पर्व सूर्य की महत्ता से जुड़ा है. ऋग्वेद में उल्लेख है कि ‘तम आसीत तमसा गूढ़मग्रे.‘ अर्थात, सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्व सर्वत्र अंधेरा था.

यजुर्वेद में भी उल्लेख है कि ‘सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुपश्च.‘ अर्थात गतिशील प्राणी एवं निष्क्रिय जड़ पदार्थों की आत्मा भी सूर्य ही है. सूर्य के प्रकाश से जहां वनस्पति अपना भोजन निर्माण करती है, वहीं शेष जीव भी इसी से अपना भोजन प्राप्त करते हैं. पूरी दुनिया में न केवल जीवों को सूर्य की ऊर्जा से जीवन मिला, बल्कि मानव विकास, सभ्यता और प्रगति को इसी ऊर्जा ने गति प्रदान की. पृथ्वी पर जलवायु की दशाओं में जो अंतर है,

उसका अहम कारण सूर्य ही है. क्योंकि जहां-जहां सूर्य की किरणें लंबवत यानी सीधी पड़ती हैं, वहां तापमान अधिक और जहां-जहां तिरछी-टेढ़ी पड़ती हैं, वहां का तापमान शून्य या कहीं-कहीं उससे भी नीचे तक चला जाता है. सूर्य जलवायु परिवर्तन का प्रमुख कारक भी है. इसे हम ऋतु परिवर्तन भी कहते हैं. यह कुछ राशियों में सूर्य की स्थिति के कारण भी होता है. वाष्पीकरण और उससे होने वाली वर्षा व उसकी मात्रा सूर्य की स्थिति परिवर्तन और उसकी प्रकृति का परिचायक है.

जलवायु और उसकी विविधता के चलते जो प्रभाव मानव जीवन पर पड़ता है, क्षेत्र विशेष के लोगों की शारीरिक-मानसिक क्षमताओं में भिन्नता भी उसी का परिणाम है. शास्त्रों के अनुसार, ग्रहों का मापन राशिवृत्त में होता है न कि ग्रहों की कक्षा में. इसलिए जब सूर्य किसी राशि विशेष के आरंभ बिंदु में होता है, तब उस राशि की संक्रांति होती है. हमारे यहां अक्सर संक्रांतियों के द्वारा ही अयन, ऋतु व मास का विचार किया जाता है. अयन का अर्थ है गति.

सूर्य का उत्तर या दक्षिण की ओर जाना या झुकाव उसका अयन है. उत्तरायण और दक्षिणायन दोनों अयन का समय एक वर्ष का होता है. सूर्य के कारण हुए ऋतु परिवर्तन से ही किस संक्रांति में कौन सी ऋतु होगी, यह जाना जाता है. शास्त्रानुसार महत्वपूर्ण चार संक्रांतियों, यथा मेष, तुला, कर्क और मकर संक्रांति में से मेष व मकर संक्रांति को ही सर्वाधिक महत्व दिया गया है. कारण, ये संक्रांतियां सूर्य के उत्तर गमन पथ में पड़ती हैं, इसलिए इन्हें उत्तरायण की संक्रांति भी कहते हैं.

उत्तरायण को देवताओं का ब्रह्म मुहूर्त शुरू होता है, इसलिए इसे सिद्धकाल माना गया है. इसी काल में यज्ञोपवीत, दीक्षा, विवाह, देव प्रतिष्ठा आदि शुभ कार्य किये जाते हैं. भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के श्लोक 24-25 में उत्तरायण का महत्व बताते हुए कहा है कि जब सूर्य उत्तरायण में होते हैं, तो इस काल में पृथ्वी प्रकाशमान रहती है.

इसके विपरीत, सूर्य के दक्षिणायन होने पर पृथ्वी अंधकारमय होती है. शिशिर, वसंत और ग्रीष्म ऋतुओं में सूर्य उत्तरायण और वर्षा, शरद और हेमंत में दक्षिणायन होते हैं. राशि के आधार पर मकर, कुंभ, मीन, मेष, वृष और मिथुन राशियों में जब सूर्य भ्रमण करते हैं, तब उत्तरायण और जब कर्क, वृश्चिक, सिंह, तुला, कन्या और धनु राशियों में भ्रमण करते हैं, तब दक्षिणायन होता है.

पौराणिक मान्यताओं के आधार पर सूर्य के मकर राशि में आते ही दानवों के दिन-रात समाप्त और देवताओं के दिन-रात प्रारंभ हो जाते हैं और जब सूर्य कर्क राशि में प्रवेश करता है, तब देवताओं के दिन-रात समाप्त हो जाते हैं और देवता अपने लोकों को लौट जाते हैं. रामचरितमानस में उल्लेख है कि ‘माघ मकर रवि गति जब होई, तीरथपति आवहिं सब कोई‘, तात्पर्य यह कि माघ मास में जब सूर्य मकर राशि में आते हैं, उस दिन को मकर संक्रांति कहते हैं.

इसका लाभ लेने के लिए सभी तीर्थों के राजा, देवता, देवियां, यक्ष, गंधर्व, दानव आदि पृथ्वी पर आते हैं और गंगा, यमुना, सरस्वती के संगम और सभी जीवनदायिनी पूज्य नदियों में स्नान कर अपने-अपने लोकों को लौट जाते हैं. महर्षि पुलस्त्य के अनुसार, इस दिन जप, तप, दान, पुण्य आदि करने से अमोघ-अक्षय फल की प्राप्ति होती है. मकर संक्रांति के दिन से मौसम में बदलाव आने लगता है, सूर्य के प्रकाश में तपन बढ़ने लगती है. फलस्वरूप, प्राणियों में चेतना और कार्य शक्ति का विकास होने लगता है.

यह पर्व हर साल 14 जनवरी को उत्तर, मध्य व अधिकांश पूर्वी भारत में मकर संक्रांति, उत्तराखंड में उत्तरायणी, केरल में पोंगल, आंध्र में पेड्डा-पांडुगा और गुजरात में उत्तरायण के नाम से मनाया जाता है. इस दिन नदियों के तटों पर स्नानादि कर, श्वेतार्क तथा रक्त रंग के पुष्पों के साथ सूर्योपासना व सूर्य को अर्ध्य देने और अन्न, तिल व गुड़ दान की परंपरा का विशेष महत्व है. सूर्य को अर्ध्य देने के पीछे यह मान्यता प्रबल है कि सूर्यदेव संक्रांति काल को निर्विघ्न गुजर जाने दें और सेवक पर अपनी कृपा दृष्टि बनाये रखें. इसके पीछे पुण्य लाभ और जीवन में सुख-शांति की कामना और समृद्धि की आशा-आकांक्षा अहम है.

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