Notice: Function _load_textdomain_just_in_time was called incorrectly. Translation loading for the newsmatic domain was triggered too early. This is usually an indicator for some code in the plugin or theme running too early. Translations should be loaded at the init action or later. Please see Debugging in WordPress for more information. (This message was added in version 6.7.0.) in /home/imagequo/domains/shrinaradmedia.com/public_html/wp-includes/functions.php on line 6121
हमारा समाज स्त्रियों के प्रति इतना कुटिल क्यों है? - श्रीनारद मीडिया

हमारा समाज स्त्रियों के प्रति इतना कुटिल क्यों है?

हमारा समाज स्त्रियों के प्रति इतना कुटिल क्यों है?

०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
priyranjan singh
IMG-20250312-WA0002
IMG-20250313-WA0003
previous arrow
next arrow
०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
priyranjan singh
IMG-20250312-WA0002
IMG-20250313-WA0003
previous arrow
next arrow

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

हाल ही में बॉलीवुड अभिनेत्री मंदिरा बेदी के पति की मृत्यु के बाद लोगों की प्रतिक्रिया ने समाज की उन सड़ी-गली मान्यताओं को सतह पर लाकर खड़ा कर दिया जिसे तथाकथित सभ्य और शिक्षित समाज बड़ी सहजता से ढककर अपनी छवि आधुनिक बनाने का प्रयास करता है. परंतु जैसे ही वह महिला के स्वरूप को अपने अनुरूप पितृसत्तात्मक व्यवस्था के ढांचे से अलग देखता है, बौखला जाता है. मंदिरा बेदी के कपड़ों पर प्रश्नचिह्न लगाने से लेकर उनका अपने पति के शव को कंधा देना समाज के एक धड़े को इस कदर नागवार गुजरा कि सोशल मीडिया पर अमर्यादित और अनर्गल छींटाकशी शुरू हो गयी.

यह बहुत दुखद है कि हम इतने निष्ठुर हैं. हमारी भावनाएं इतनी लक्षित और पूर्वाग्रहों से ग्रसित हैं कि हम स्त्री को सिर्फ और सिर्फ भावनात्मक लबादा ओढ़े देखना चाहते हैं. दरअसल, हम जानते ही नहीं कि परंपराएं अगर स्थिर हो जायें, तो समाज के लिए कष्टकारी हो जाती हैं. हमने स्वयं से कभी यह प्रश्न पूछने का प्रयास ही नहीं किया कि कैसे और क्यों हम इतने अधिकार संपन्न हो गये कि हमने लोगों के दर्द को मापने की दक्षता हासिल कर ली.

असल में, हमने यह मान लिया है कि किसी को कुछ भी कह देना हमारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हिस्सा है. पर क्या कभी यह विचार किया गया कि जब एक शहीद की विधवा अपने पति के शव को कंधा देती है, तो हमारा हृदय द्रवित और गौरवान्वित हो उठता है, फिर किसी और पर कटाक्ष क्यों? यहां देश के लिए अपने प्राणों को न्यौछावर करनेवाले शहीद की तुलना एक पेशेवर व्यक्ति से कदापि नहीं की जा रही.

अपितु, यहां तुलना का भाव मात्र वैधव्य के असहनीय दर्द को उल्लेखित करना है कि यह दर्द वैधव्य पीड़ा पाने वाली हर स्त्री में समान रूप से संचारित होता है. क्या एक अभिनेत्री अपने पति के शव को कंधा इसलिए नहीं दे सकती क्योंकि वह उस दुनिया का हिस्सा है जहां सदैव चकाचौंध बनी रहती है? क्या इस दुनिया में रहने वाले भावहीन हैं?

यदि मंदिरा बेदी जींस और टीशर्ट की बजाय कोई पारंपरिक लिबास पहनतीं, तो क्या उनका दर्द उन लोगों को बेहतर तरीके से समझ आता जो उन्हें कपड़ों को लेकर ट्रोल कर रहे हैं. यह कैसी क्रूरता है कि कपड़ों से किसी के दर्द को मापा जा रहा है. हमारी समस्या मंदिरा बेदी नहीं, बल्कि वह कुंठित सोच है जो पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित हो रही है. बिना तथ्यात्मक जानकारी के हर बात को धर्म के नाम पर जपने वाले, भारत की उन महान परंपराओं से तनिक भी परिचित नहीं हैं जो स्त्री को सदैव ही पुरुष के समानांतर स्थान देती आयी है.

आधुनिकता को वस्त्रों तक सीमित करने वाला समाज यह जानने और समझने की चेष्टा ही नहीं करता कि आधुनिकता का संबंध विचारों से है. आधुनिकता वह है जहां बिना किसी भेद के सभी को समान अवसर मिले, जो जीवन को विषाद और अवसाद से मुक्त करे. आदिम ग्रंथ के रूप में स्थापित ‘वेद’ स्त्री को वे सभी अधिकार देते हैं जिन पर आज पुरुष अपना एकाधिकार समझ बैठे हैं. क्या तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग यह कल्पना कर सकते हैं कि हजारों वर्ष पूर्व लिखे वेदों में विधवा विवाह का उल्लेख है, जिसे आधुनिक और सभ्य समाज धर्म के नाम पर आज भी नकारने की चेष्टा करता है.

ऋग्वेद में स्पष्ट उल्लिखित है, ‘उदीर्ष्व नार्यस्तु जीवों गतासुमीतमुप शेष एहि. हस्तग्राभस्य दिधिषोस्तवेदं पत्युर्जनत्वमभि सं बभूव.’ अर्थात्, हे! विधवा नारी, जो चला गया उस मृत पति को छोड़कर उठ और जीवितों के लोक के पति को प्राप्त कर, उसी के साथ संतानोत्पादनार्थ व्यवहार कर. पर इन मंत्रों को सप्रयास विस्मृत किया गया, क्योंकि प्रश्न एकछत्र प्रभुत्व स्थापित करने का था.

परंतु, धर्म और परंपराओं की गलत व्याख्या के बीच वे स्वयं भ्रमित हैं कि स्त्री के किस रूप को स्वीकार करें? वे देवी और अमानुषी छवि के बीच स्त्री को ढूंढते हुए उसके मानव अस्तित्व को कभी स्वीकार ही नहीं कर पाते. हम स्त्री को लेकर सदैव ही कुटिलता बरतते आये हैं. इससे देश का कोई भी वर्ग अछूता नहीं है. अगर किसी विवाहित अभिनेता से किसी अभिनेत्री के संबंध जुड़े, तो उसमें सदैव ही अभिनेत्री को दोषी करार दिया गया और पुरुष को निर्दोष. स्त्री को कमजोर मानने वाला समाज एकाएक स्त्री को इतना ताकतवर बना देता है कि भला-चंगा पुरुष निरीह प्रतीत होने लगता है.

शादी के कुछ दिनों या महीनों में लड़के की नौकरी छूट जाये, व्यापार में नुकसान हो जाये, तो यह तय है कि उसकी सारी जिम्मेदारी नवविवाहिता पर आती है जिसका दुर्भाग्य इसके पीछे होता है. यदि दुर्घटनावश किसी नवविवाहिता के पति की मौत हो जाये, तो पत्नी को मनहूस घोषित करने में समाज एक पल भी नहीं हिचकता. कभी किसी पुरुष को पत्नी की आकस्मिक मौत के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए समाज को देखा है?

क्या कभी विचार किया गया है कि समाज इतना कुटिल क्यों है? क्या वाकई स्त्री इतनी शक्तिशाली है कि वह अकेले बिना दूसरे की सहमति के किसी से प्रेम संबंध स्थापित कर ले या फिर किसी की मौत की निर्णायक बन जाये. स्त्री अगर सारी लानत-मलामत झेलती रहे, तो त्याग की मूर्ति, एक आदर्श स्त्री, वरना अमानुषी. बीच में उसके लिए कोई मुकाम है ही नहीं. खुद को इंसान स्वीकारे जाने की जद्दोजहद तो शायद कभी खत्म नहीं होने वाली.

Leave a Reply

error: Content is protected !!