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पार्टी प्रवक्ताओं के लिए संयम क्यों जरूरी हैं? - श्रीनारद मीडिया

पार्टी प्रवक्ताओं के लिए संयम क्यों जरूरी हैं?

पार्टी प्रवक्ताओं के लिए संयम क्यों जरूरी हैं?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

महत्वाकांक्षा और अज्ञानता से उपजा घमंड फसाद से कम नहीं है. जब ये साथ आते हैं, तो केवल दुख व कलंक लाते हैं. भाजपा के नौसिखिये टीवी योद्धाओं- नूपुर शर्मा और नवीन जिंदल- के पैगंबर मोहम्मद के विरुद्ध अवांछित व मअपमान ने उनकी पार्टी को मुश्किल में डाल दिया है. इन दो प्रवक्ताओं ने अपनी सरकार को इस्लामिक देशों के रोष के सामने अभूतपूर्व ढंग से शर्मिंदा कर दिया है.

विदेश मंत्रालय ने भारत की ओर से माफी के रूप में जारी बयान में अपमान करनेवाले प्रवक्ताओं को ‘हाशिये के तत्व’ कहा है. यह कूटनीतिक रूप से शायद सही तरीका हो सकता है, पर यह कुछ अविश्वसनीय, वैचारिक रूप से अस्थिर है तथा इसमें राजनीतिक बेचैनी के संकेत हैं. इससे इस घटना को भारत में बढ़ते इस्लामोफोबिया के संकेत के रूप में पढ़े जाने से रोकने में कोई मदद नहीं मिली और न ही यह देशभर में व्यापक मुस्लिम विरोध को रोक सका. अपने अति उत्साह में नुपूर और नवीन ने स्पष्ट रूप से राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डाल दिया है.

राष्ट्रीय स्तर पर चेहरा चमकाने के लालची प्रवक्ताओं ने हमें यहां तक पहुंचाया है, जिससे न केवल पार्टी को नुकसान हुआ है, बल्कि आम भारतीय भी खतरे में आ गया है. इन बकवास करनेवालों को किसी भी मुद्दे पर बोलने की अनुमति थी. अपनी सरकार की शानदार उपलब्धियों को बताने की जगह ये हिंदू लड़ाकों की तरह हर चर्चा को अल्पसंख्यकों पर प्रहार का मौका बनाने पर आमादा रहते थे.

नुपूर शर्मा पार्टी की समर्पित कार्यकर्ता हैं और अच्छी वक्ता है, पर उन्हें लगा कि राजनीति में उनका भविष्य अल्पसंख्यकों के खिलाफ भला-बुरा कहने पर निर्भर है, न कि प्रधानमंत्री मोदी की उपलब्धियों को लेकर असरदार बहस पर. वे राजनीतिक वाचालों के नये वर्ग को इंगित करती हैं, जिसका तरीका टीवी पर शालीन बहस की जगह अपने प्रतिपक्षी से भिड़ जाना है.

भाजपा के अनेक प्रवक्ता केवल बड़बोलेपन से आगे बढ़ रहे हैं, न कि किसी समझ से. भाजपा समेत सभी राजनीतिक पार्टियों ने अपने संगठनों के हाशिये के तत्वों को प्रवक्ता बना दिया है, पर वे अंतत: तर्कहीन घृणित मेगाफोन बन जाते हैं. इनकी एक ही योग्यता है कि वे समाचार को मूर्खता में बदल चुके एंकरों के साथ मिल कर एक अच्छी टीवी स्टोरी बना दें. चूंकि वरिष्ठ नेता कभी-कभार ही टीवी पर आते हैं, सो चैनलों को ऐसे लोगों को बुलाना पड़ता है, जो टीवी को विषाक्त और मनोरंजक बनाएं.

दुर्भाग्य से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का आख्यान राष्ट्रीय एजेंडा को तय कर रहा है. टीवी समाचार को सांप्रदायिक, जातिगत व सामुदायिक द्वंद्व का युद्धक्षेत्र बनाने में नुपूर अकेली नहीं हैं. भाजपा के लगभग सभी टीवी योद्धा हर चर्चा को किसी व्यक्ति या धर्म के विरुद्ध अपमान का साधन बनाने के लिए मनोवैज्ञानिक रूप से दक्ष हैं. पार्टी के लगभग 24 प्रवक्ताओं में केवल चार सांसद और तीन पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं. अन्य आधा दर्जन दूसरी पार्टियों से आये हैं.

कुछ युवाओं को शोर करने की क्षमता के कारण चुना गया है. यह अजीब है कि भाजपा के मुख्य प्रवक्ता और मीडिया सेल के प्रभारी अनिल बलुनी कभी-कभार ही मीडिया से बात करते हैं. वे पूर्व पत्रकार हैं और अमित शाह के पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद उभरे थे. उससे पहले वे गुजरात के पूर्व राज्यपाल सुंदर सिंह भंडारी के सहयोगी थे. बलुनी ही प्रवक्ताओं को निर्देश देते हैं और उन्हें चैनलों में भेजते हैं. मुद्दों पर विचार रखने और उन्हें उछालने के बारे में कैसे तय होता, यह रहस्य है.

पार्टी सूत्रों के अनुसार, पार्टी प्रवक्ताओं पर न तो निगरानी होती है और न ही वरिष्ठ नेता उन्हें सिखाते हैं. उनमें केवल सत्ता और पहचान की भूख है और वे पार्टी के लिए बिना कड़ी मेहनत किये वह सब पाने की स्थिति में हैं, पर इस स्थिति का सारा दोष उन पर नहीं मढ़ा जा सकता है.

सत्ता में आने के तुरंत बाद शीर्ष नेतृत्व को लगा कि अनुभवी और परिचित चेहरों काे मीडिया योद्धा बनाने की जरूरत नहीं है. बीते आठ साल में मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और पार्टी नेताओं ने अधिकतम आकर्षण के लिए मीडिया का कामयाब इस्तेमाल किया, पर बाद में इनमें लापरवाही आने लगी और वे टीवी बयान की ताकत को कमतर आंकने लगे.

आक्रामक नौसिखिये लोगों का चयन कैमरे के सामने अनुभवी लोगों को लाने की पहले की नीति से बिल्कुल अलग है. साल 2014 से पहले कोई वरिष्ठ भाजपा नेता मीडिया प्रभारी होता था. केआर मलकानी, सुषमा स्वराज, प्रमोद महाजन, यशवंत सिन्हा, जसवंत सिंह और अरूण जेटली जैसे दिग्गज पार्टी के चेहरे होते थे. वे रोजाना पत्रकारों से मिलते थे.

कांग्रेस के वीएन गाडगिल, जयपाल रेड्डी, गुलाम नबी आजाद, आनंद शर्मा, वीरप्पा मोइली, अभिषेक मनु सिंघवी और पवन खेरा जैसे लोगों ने शायद ही कभी विपक्षियों के लिए अभद्र शब्द का उपयोग किया होगा. ऐसा सुधांशु त्रिवेदी और राजीव प्रताप रूढ़ी जैसे पुराने भाजपा प्रवक्ताओं ने भी कभी नहीं किया. वाचालों को बढ़ावा देने से भाजपा को अल्पकालीन लाभ ही होगा, पर लंबे समय तक दर्द मिलेगा.

पहले से ही आक्रामक हिंदुत्व से कोने में धकेल दिये गये मुस्लिम समुदाय को इस बार ठोस मुद्दा मिला है, यह कहने के लिए कि भारतीय राष्ट्र का ही एजेंडा इस्लाम विरोधी है. बीते आठ साल में संघ परिवार ने पुराने इतिहास और हिंदू संस्कृति को कुछ मुस्लिम शासकों द्वारा चोट पहुंचाने को लेकर बड़ी संख्या में हिंदुओं का समर्थन हासिल किया है.

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