हिंदी की अकादमिक दुनिया इतनी छुईमुई क्यों है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

दुनिया की तीन सबसे बड़ी भाषाओं में से एक हिंदी के प्राध्यापक समाज को बहुत डर लगता है। किसी न किसी बात से हर समय इस समाज को डर लगता रहता है। कभी किसी लोकप्रिय किताब से, तो कभी फिल्मी गीतकारों से, कभी नई वाली हिंदी से तो कभी अपनी ही राजस्थानी, अवधी, छत्तीसगढ़ी आदि लोक भाषाओं से। भोजपुरी से तो इतना डर लगता है कि बहुत सारे हिंदी प्राध्यापकों के सपनों में वह भूत बनकर डराती रहती है। एक जमाने में गालियों से भी बहुत डर लगा था। राही मासूम रजा की किताब ‘आधा गांव’ पाठ्यक्रमों के लिए सिरदर्द हो गई थी।

हालिया डर का कारण गोरखपुर विश्वविद्यालय के एम.ए. के पाठ्यक्रम में लोकप्रिय उपन्यासकारों की चवन्नी बराबर उपस्थिति है। हद तो यह है कि जिस अखबार की कतरन को ज्यादातर लोग पोस्ट में टांग रहे हैं उसे भी पढ़ने की जहमत कम लोगों ने ही उठाई है। एमए तक आते-आते हिंदी छात्र वयस्क हो चुके होते हैं और लगभग सभी प्रमुख साहित्यकारों को पढ़ चुके होते हैं। जिस पाठ्यक्रम से प्राध्यापक हिंदी समाज का एक तबका भयाक्रांत है वह एमए हिंदी में के चौथे सत्र का एक प्रश्न पत्र है। ध्यान रखें कि चौथे सत्र में एमए भी लगभग खत्म होने को आ चुका होता है।

यह चौथे सत्र के भी एक प्रश्न पत्र का मामला है जिसका शीर्षक ही लोकप्रिय साहित्य है। 100 अंकों के इस प्रश्न पत्र को 5 इकाइयों में विभाजित किया गया है यह प्रश्न पत्र 5 क्रेडिट का है। पहली इकाई लोकप्रिय साहित्य की अवधारणा पर बात करती है। दूसरी इकाई में उसकी लोकप्रियता का आधार बताया गया है। तीसरी इकाई तिलस्मी और जासूसी साहित्य के इतिहास पर बात करते हुए देवकीनंदन खत्री, गोपालराम गहमरी जैसे लोगों पर केंद्रित की गई है।

चौथी इकाई में शहरी और ग्रामीण संस्कृति में बाजार और लोकप्रिय साहित्य के महत्व की चर्चा की गई है और पांचवी और अंतिम इकाई में इब्ने सफी, गुलशन नंदा, वेद प्रकाश शर्मा, सुरेंद्र मोहन पाठक, राधेश्याम रामायण और हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला को स्थान दिया गया है। सोचने की बात यह है कि जो भी चर्चा हो रही है वह पांचवी इकाई में दर्ज एक क्रेडिट के साहित्यकारों पर हो रही है। सामान्यतः m.a. के दौरान विद्यार्थी 80 से 120 क्रेडिट के पाठ्यक्रम को पढ़ते हैं।

एक क्रेडिट के कोर्स के लिए कुछ घंटे की क्लास ही आएगी और उतने में एक सामान्य परिचय ही दिया जा सकता है न कि उपन्यासों की पूरी चर्चा होगी। हिंदी के तमाम बड़े साहित्यकारों को पढ़ चुके छात्र अगर  अगर उसके एक क्रेडिट में वेद प्रकाश शर्मा को जान ही लेंगे तो उससे क्या आफत आ जाएगी। दूसरी बात, अगर 20 वर्षों तक तमाम बड़े साहित्यकारों को पढ़ने के बाद भी उस छात्र का सौंदर्य बोध नहीं जागा और वह वेद प्रकाश शर्मा की बाढ़ में बह जा रहा है तो फिर ऐसे छात्रों को तो बह ही जाना चाहिए।

एक तरफ़ तो हम हिन्दी को अंतरराष्ट्रीय और समावेशी और बहुरंगी बनाने की बात करते हैं दूसरी ओर अलग तरह का ही शुद्धतावादी हम पर हावी रहता है। अगर हमारे पाठ्यक्रम में साहिर लुधियानवी और शैलेंद्र आ जाते हैं तो उससे हिन्दी का क्षेत्र विस्तार ही होगा, लोकप्रियता में कमी नहीं आएगी।  कुछ निर्णय छात्रों पर भी छोड़ देना चाहिए । एक अध्यापक के रूप में हमारे भीतर इतना विश्वास तो होना ही चाहिए कि हम अपने छात्रों को बता सकेंगे कि प्रेमचंद और गुलशन नन्दा में क्या फ़र्क है और निराला के सामने कुमार विश्वास कहाँ ठहरते हैं।

मुझे याद है राजीव सिन्हा, Prabhat Ranjan जैसे लोकप्रिय साहित्य के रसिया कुछ मित्रों से अक्सर हमारी चर्चा होती थी कि हिंदी विद्यार्थियों ख़ास तौर से शोधार्थियों को इस तरह के साहित्य से परिचित होना चाहिए।  
आज के समय में हमें हिंदी को और खोलने की ज़रूरत है बाँधने की नहीं। हिन्दी पर्याप्त ताक़तवर है, हिन्दी के अध्यापक सक्षम हैं वे अपने छात्रों में बेहतर सौंदर्यबोध जगा सकते हैं इसलिए डरने की कोई ज़रूरत नहीं है।

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