तमिलनाडु में हिंदी का इतना विरोध क्यों है?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
हिंदी को तमिलों पर न थोपा जाए’, यह कहते हुए तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक लंबा पत्र लिखा है. यह पत्र लिखने का तात्कालिक कारण राजभाषा की संसदीय समिति के रिपोर्ट की वह सिफारिश है, जिसमें कहा गया है कि तकनीकी और गैर-तकनीकी उच्च शिक्षण संस्थाओं में हिंदी भाषी राज्यों में शिक्षा का माध्यम हिंदी हो तथा देश के अन्य हिस्सों में यह स्थानीय भाषाएं हों.
यह रिपोर्ट समिति के प्रमुख और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने हाल में राष्ट्रपति को सौंपी है. सिफारिशों में सभी राज्यों में स्थानीय भाषाओं को अंग्रेजी के ऊपर तरजीह देने की बात है. फिर मुख्यमंत्री स्टालिन और उनकी पार्टी डीएमके ने इतनी जल्दी प्रतिक्रिया क्यों दी? इसका उत्तर वहां के आंतरिक कारणों में है. चुनावी वादों को ठीक से लागू नहीं किया जा सका है, जिससे स्टालिन के असफल प्रशासन के प्रति मतदाताओं में क्षोभ उत्पन्न हो रहा है.
सबसे प्रमुख मामला तो पार्टी के प्रथम परिवार की राजनीति है. मुख्यमंत्री स्वयं कह चुके हैं कि पार्टी में और सरकार में चल रही आपसी खींचतान से उन्हें ठीक नींद नहीं आती है. उन्होंने यह भी कहा कि उनका स्वास्थ्य इससे प्रभावित हो रहा है. अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए उन्होंने पार्टी की जनरल काउंसिल की बैठक को चुना.
भाजपा और हिंदुत्व के विरुद्ध राजनीतिक भाषण देने के बजाय, जिस पर उन्हें ध्यान केंद्रित करना था, मुख्यमंत्री भटक कर अन्य विषय पर चले गये. पार्टी के नेता और सहयोगी भी अचंभित थे कि ऐसे भाषण से तो उन्हें ही नुकसान होगा. बड़े अखबारों व पत्रिकाओं के संपादकीय में संकेत किया गया कि पार्टी और सरकार पर स्टालिन की पकड़ कमजोर हो रही है. ऐसे में राजभाषा रिपोर्ट ने उन्हें एक अवसर दे दिया और उन्होंने ’हिंदी मुर्दाबाद’ का 55 साल पुराना नारा उछाल दिया.
सहयोगी पार्टियां भी बिना समय गंवाये सुर में सुर मिलाने लगीं. उल्लेखनीय है कि राजभाषा की संसदीय समिति में डीएमके और एडीएमके समेत सभी पार्टियों के सांसद होते हैं. यह इस समिति की 11वीं रिपोर्ट है, जो हर पांच साल में एक बार लायी जाती है. लेकिन इस बार तीन साल में इस समिति ने दो रिपोर्ट दी है. अब यह राष्ट्रपति पर निर्भर करता है कि उन्हें रिपोर्ट और उसकी सिफारिशों को स्वीकार करना है या नहीं. हिंदी में तकनीकी शब्दकोश के 12 से अधिक भाग भी तैयार हुए हैं.
इस समिति का गठन राजभाषा कानून, 1963 के तहत 1976 में हुआ था. इसके कुल 30 सदस्यों में 20 लोकसभा और 10 राज्यसभा से होते हैं. समिति सरकारी काम और उद्देश्यों में हिंदी के प्रयोग की प्रगति की समीक्षा करती है तथा सिफारिशों के साथ इसकी रिपोर्ट राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत करती है. दिलचस्प है कि गृहमंत्री के रूप में पी चिदंबरम ने 2011 में अधिक कठोर सिफारिशों के साथ समिति की रिपोर्ट तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को दी थी और उन्हें लागू भी किया गया था.
स्टालिन को आखिर क्यों याद नहीं कि डीएमके भी यूपीए का हिस्सा थी और चिदंबरम पार्टी के सबसे अच्छे मित्र थे? सरकार को अंग्रेजी शब्दों के उच्चारण का एक हिंदी शब्दकोश भी तैयार करना है तथा सरकारी पत्राचार में कठिन भाषा के प्रयोग से परहेज सुनिश्चित करना है. उदाहरण के लिए विमुद्रीकरण के स्थान पर अधिक लोकप्रिय नोटबंदी को इस्तेमाल किया जा सकता है.
स्टालिन को समझना चाहिए कि नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी महाविद्यालयों में हिंदी पढ़ाने के बारे में ऐसे ही निर्देश दिये गये हैं. कुछ समय पहले अमित शाह ने भोपाल में एमबीबीएस पाठ्यक्रम के लिए हिंदी में किताबों का विमोचन किया. इसी तरह तमिलनाडु में भी मेडिकल छात्रों के लिए तमिल में किताबें उपलब्ध हैं. स्टालिन को समझना होगा कि 21वीं सदी डिजिटाइजेशन की है. उदाहरण के लिए, महाबलीपुरम आया कोई कोरियाई पर्यटक गूगल ट्रांसलेशन के जरिये तमिल में संवाद कर सकता है. दुनिया में तकनीक बहुत विकसित हो चुकी है.
लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि डीएमके अभी भी 1965 के युग में जी रही है. हिंदी विरोध अब बेमतलब है. एक राजनीतिक हथियार के रूप में हिंदी का समय बीत चुका है. डीएमके नेता तमिलनाडु में पानी-पूरी बेचने वालों को उत्तर भारतीय कहकर परेशान कर सकते हैं, पर राज्य के हर रेस्तरां में बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड या ओडिशा के युवा काम करते मिल जायेंगे. हिंदी तमिलनाडु पहुंच चुकी है. राज्य के सामाजिक ताने-बाने में उत्तर की संस्कृति भी शामिल हो चुकी है.
आश्चर्य की बात नहीं कि 2031 के चुनाव में तमिलनाडु में कोई बिहारी या उत्तराखंडी विधायक या मंत्री बन जाये. हर क्षेत्र में उत्तर भारतीय कार्यरत हैं. डीएमके को इन वास्तविकताओं को देखना होगा. राजनीतिक तौर पर देखें, तो स्टालिन के हिंदी विरोध के पीछे एक बड़ा कारण यह है कि वे भाजपा को तमिलनाडु में हिंदी और उत्तर भारतीय पार्टी के रूप में श्रेणीबद्ध करना चाहते हैं. डीएमके का आंतरिक आकलन है कि भाजपा का विस्तार हुआ है और वह 2024 में एक खतरा हो सकती है.
- यह भी पढ़े…..
- सामा-चकेवा पर्व: पुत्री सामा और पुत्र चकेवा की क्या है कहानी ?
- गोपालगंज में कुत्तिया ने दिया बकरी की आकृति जैसे बच्चे को जन्म
- भोरे की धरती भोजपुरी आंदोलन कि पहली अलख 1947 में जगाई थी- डॉ जयकांत सिंह ‘जय’।