क्यों हमारे शिक्षण-संस्थान वैश्विक मानकों एवं गुणवत्ता की कसौटी पर खरे नहीं उतरते?
खत्म हो अंकों की अंधी दौड़
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
बोर्ड परीक्षाओं (Board Exam) के परिणाम एवं विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं की मेरिट देखकर इन दिनों कहीं बधाइयों का तांता लगा है तो कहीं सन्नाटा पसरा है। ऐसे अवसर पर यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि कोई भी परीक्षा जीवन की अंतिम परीक्षा नहीं होती और न ही किसी एक परीक्षा के परिणाम पर सब कुछ निर्भर करता है। जीवन अवसर देता है और बहुधा बार-बार देता है।
अंतत: ज्ञान और प्रतिभा ही मायने रखती है और इन्हीं पर जीवन की सफलता-असफलता निर्भर करती है। समाज में प्राय: ऐसे दृष्टांत देखने को मिलते हैं कि बोर्ड-परीक्षाओं में कम अंक लाने या प्रतियोगी परीक्षाओं में मिली प्रारंभिक विफलता के बाद भी धैर्य और निरंतरता के साथ किए गए परिश्रम और पुरुषार्थ अंतत: फलदायी सिद्ध होते हैं।
ऐसे तमाम दृष्टांतों के बावजूद बोर्ड एवं प्रतियोगी परीक्षाओं के दबाव और तनाव में एक ओर गुम होता बचपन दिखाई देता है तो दूसरी ओर येन-केन-प्रकारेण पास होने और अधिक-से-अधिक अंक बटोरने का उतावलापन भी दिखाई पड़ता है। सवाल है कि क्या कागज के एक टुकड़े भर से किसी के ज्ञान या व्यक्तित्व का समग्र आकलन किया जा सकता है? क्या किसी एक परीक्षा की सफलता-असफलता पर ही भविष्य की योजनाएं निर्भर करती हैं? जीवन की वास्तविक परीक्षाओं में ये परीक्षाएं कितनी सहायक हैं? इन्हें जाने-विचारे बिना अंकों के पीछे दौड़ने की प्रवृत्ति दिनों दिन बढ़ती जा रही है। इसी कारण कोचिंग संस्कृति विस्तार ले रही है।
अधिक प्राप्तांक को ही सफलता की एकमात्र कसौटी मानने से सामाजिकता, संवेदनशीलता, रचनात्मकता जैसे गुणों की अपेक्षित चर्चा नहीं हो पाती। यदि किसी विद्यार्थी के प्राप्तांक प्रतिशत कम हैं, पर वह नैतिक, सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक, व्यावहारिक कसौटियों पर खरा उतरता हो तो क्या यह सब उसकी योग्यता का मापदंड नहीं होना चाहिए? क्या उसके संवाद कौशल, नेतृत्व क्षमता, सेवा भाव, प्रकृति-परिवेश के प्रति सजगता आदि का आकलन नहीं किया जाना चाहिए? पिछले सौ वर्षों की महानतम मानवीय उपलब्धियों पर यदि नजर डालें तो मानवता को दिशा देने वाले लोग विद्यालयी परीक्षाओं में सर्वोच्च अंक लाने वाले नहीं थे, बल्कि उनमें से कई तो तत्कालीन शिक्षण तंत्र की दृष्टि में फिसड्डी थे। हां, समाज को लेकर उनका ज्ञान विशद और दृष्टिकोण व्यापक अवश्य था।
क्या यह उचित नहीं होगा कि हम इस पर व्यापक विमर्श करें कि क्यों हमारे शिक्षण-संस्थान वैश्विक मानकों एवं गुणवत्ता की कसौटी पर खरे नहीं उतरते? क्यों हमारे विश्वविद्यालयों में मौलिक शोध एवं वैज्ञानिक-व्यावहारिक दृष्टिकोण का अभाव परिलक्षित होता है? क्यों हमारे शिक्षण-संस्थान अभिनव प्रयोगों, नवोन्मेषी पद्धतियों, विश्लेषणपरक प्रवृत्तियों को बढ़ावा नहीं देते? क्यों हमारे शिक्षण-संस्थानों से निकले अधिकांश विद्यार्थी आत्मनिर्भर और स्वावलंबी नहीं बन पाते? क्यों उनमें कार्यानुकूल दक्षता एवं कुशलता की कमी देखने को मिलती है? क्यों वे साहस और आत्मविश्वास के साथ जीवन की चुनौतियों, विषमताओं, प्रतिकूलताओं का सामना नहीं कर पाते?
अंकों की प्रतिस्पर्धा का आत्मघाती दबाव दुखद है। ऐसी अंधी प्रतिस्पर्धा कुछ को एकाकी और स्वार्थी बनाती है तो कुछ को कुंठा के गर्त में धकेलती है। यह तथ्य है कि प्रतिस्पर्धा और ईर्ष्या में व्यक्ति प्रकृति में सर्वत्र व्याप्त सहयोग, सामंजस्य और सौंदर्य को विस्मृत कर बैठता है। फिर वह चराचर में फैले जीवन के गीत को गुनगुनाना, गाना और सुनना ही भूल जाता है।
प्रतिस्पर्धा करते-करते वह अपने घर-परिवार, समाज और राष्ट्र के प्रति भी प्रतिस्पर्धी भाव रखने लगता है। कई बार तो वह अपनों के प्रति भी कटु और कृतघ्न हो उठता है। यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि हम उसे बचपन से ही दूसरों को पछाड़ने की सीख दे रहे हैं? हमें तो साथ, सहयोग और सामंजस्य की सीख देनी चाहिए। ‘जीवन एक संघर्ष है’ इससे कहीं अधिक आवश्यक है यह समझना कि जीवन ‘विपरीत ध्रुवों का सामंजस्य’ और ‘सहयोग एवं संतुलन’ की सतत साधना है।
अंकों की गलाकाट प्रतिस्पर्धा वाले इस दौर में सफलता के सब्जबाग दिखाते और सपने बेचते गली-मुहल्ले में कुकुरमुत्ते की तरह उग आए कोचिंग संस्थान कोढ़ में खाज का काम करते हैं। वे अभिभावकों से सफलता का सौदा करते हैं। कई बार तो बहुतेरे अभिभावक अपने बच्चों की रुचि एवं क्षमता का विचार किए बिना अपने सपनों एवं महत्वाकांक्षाओं का बोझ जाने-अनजाने उनके कोमल कंधों पर डालने की भूल कर बैठते हैं। प्राय: बच्चे उनके सपनों एवं महत्वाकांक्षाओं का भार ढोते-ढोते अपना सहज-स्वाभाविक बचपन और जीवन तक भूल जाते हैं। वे कुछ और कर सकते थे, लेकिन भेड़चाल के कारण उन्हें विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं की अंतहीन दौड़ एवं भीड़ में धकेल दिया जाता है। यदि सफल हुए तो ठीक, पर यदि विफल हुए तो वे उस विफलता की मनोदशा से बाहर नहीं निकल पाते।
ऐसे में समाज और संस्थाओं को सोचना होगा कि हमारे बच्चे उत्पाद न होकर जीते-जागते मनुष्य हैं और मनुष्य का निर्माण स्नेह, समर्पण, त्याग, संयम, धैर्य, सहयोग, समझ और संवेदनाओं से ही संभव है। ध्यान रहे कि मनुष्य का मनुष्य हो जाना ही उसकी चरम उपलब्धि है। इसलिए अपनी संततियों को अंकों की अंधी प्रतिस्पर्धा एवं अंतहीन दौड़ में झोंकने के बजाय उनके समग्र, संतुलित एवं बहुआयामी व्यक्तित्व के विकास पर ध्यान देना चाहिए। जीवन बहुरंगी एवं बहुपक्षीय है और हर रंग एवं पक्ष का अपना सौंदर्य, महत्व तथा आनंद है। हर रंग और पक्ष को हृदय से स्वीकार करने में ही जीवन की सार्थकता है।
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