जी-20 की सफलता से भारत को क्यों सचेत रहना होगा?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

अमेरिका के लिए जी-20 समिट की सफलता को सुनिश्चित करना जरूरी था। इसके बावजूद भारत को सचेत रहना चाहिए। क्योंकि यूक्रेन में चल रहे युद्ध के प्रति भारत की तटस्थता को पश्चिमी देश एक सीमा तक ही बर्दाश्त करेंगे।

जब जी-20 के सदस्य देशों ने नई दिल्ली घोषणा-पत्र स्वीकारा तो यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित भारतीय अधिकारियों के लिए बड़ी उपलब्धि थी। उनके सामने अनेक विषयों- विशेषकर यूक्रेन में चल रहे युद्ध पर सर्वसम्मति बनाने की कठिन चुनौती थी। लेकिन अनेक सप्ताह तक चली वार्ताओं के बाद सभी देशों ने एक-स्वर में भारत के प्रस्तावित संयुक्त घोषणा-पत्र पर रजामंदी दे दी।

यूक्रेन के मामले में रिजोल्यूशन में कहा गया कि यह युद्धों का समय नहीं है। लेकिन अमेरिका और यूरोपियन देशों के दबाव के बावजूद स्पष्ट शब्दों में रूस की निंदा नहीं की गई। इस पर यूक्रेन ने टिप्पणी की कि इसमें गर्व करने जैसी बात नहीं है। लेकिन जी-20 के द्वारा इस पर सहमति जताना रूस और उसके निकटतम-सहयोगी चीन को रियायत देने की तरह देखा जा रहा है।

पश्चिम का नजरिया स्पष्ट है- जी-20 भारत की कूटनीतिक सफलता थी। अफ्रीकन यूनियन को स्थायी सदस्यता दिलाने का भारत का प्रस्ताव सर्वत्र सराहा गया और संकटग्रस्त देशों के लिए क्लाइमेट-फाइनेंसिंग बढ़ाने के लिए उसकी प्रतिबद्धता की भी प्रशंसा की गई। नई दिल्ली में आयोजित जी-20 समिट में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत का बढ़ता प्रभाव स्पष्ट झलका।

भारत ने खुद को विकासशील देशों और ग्लोबल साउथ के अगुआ के रूप में प्रस्तुत किया है और अब उसकी चीन से सीधी प्रतिस्पर्धा निर्मित हो चुकी है। शी जिनपिंग समिट से नदारद रहे। इसे उनके द्वारा इस मंच का अवमूल्यन करने के प्रयास के रूप में देखा गया, क्योंकि जी-20 पर अमेरिका का दबदबा समझा जाता है। भारत से भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा के कारण भी चीन ने समिट से दूरी बनाए रखी। इसके बजाय चीन ब्रिक्स फोरम के माध्यम से विकासशील देशों के नेतृत्वकर्ता के रूप में अपने प्रभाव को बढ़ाने की कोशिश कर रहा है।

वॉशिंगटन में आमराय यह है कि यूक्रेन के मामले में प्रेसिडेंट बाइडन द्वारा सहमति देने के पीछे दो कारण थे। एक तो वे एक वैश्विक मंच पर भारत को लज्जित नहीं करना चाहते थे। विश्लेषकों का मत था कि यूक्रेन पर भारत और अमेरिका का रुख भिन्न है और इस बिंदु पर जी-20 में सहमति नहीं बन पाएगी।

ऐसा होता तो इससे भारत की कूटनीतिक-क्षमता पर प्रश्नचिह्न उठ खड़े होते। दूसरे, भारत अमेरिका का महत्वपूर्ण आर्थिक और रणनीतिक सहयोगी है और चीन के समक्ष भारत शक्ति-संतुलन की स्थिति निर्मित करता है। बाइडन के लिए जी-20 समिट की सफलता सुनिश्चित करना जरूरी था। इसके बावजूद नई दिल्ली को सचेत रहना चाहिए। यूक्रेन युद्ध के प्रति भारत की तटस्थता को पश्चिमी देश एक सीमा तक ही बर्दाश्त करेंगे। वे यह भी पसंद नहीं करेंगे कि भारत रूसी सामग्रियों की खरीदारी जारी रखे।

पिछले महीने हुए ब्रिक्स फोरम का उदाहरण लें, जिसमें अमेरिका के सबसे बड़े राजनीतिक शत्रुओं में से एक ईरान को सम्मिलित किया गया। भारत पहले झिझक रहा था, लेकिन चीन की मांग पर इसके लिए राजी हो गया। ब्रिक्स में ईरान के अलावा सऊदी अरब, यूएई, इथियोपिया को सम्मिलित कराने के पीछे चीन का मकसद खुद को अमेरिका के विकल्प के रूप में पेश करना था।

भारत ब्रिक्स को एक महत्वपूर्ण आर्थिक-समूह समझता है। इस पर भारत और चीन के दृष्टिकोण को लेकर दोनों देशों में स्पष्ट तनाव है, जबकि पश्चिम मानता है कि इस ब्लॉक पर- जिसमें रूस, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका भी शामिल हैं- चीन का दबदबा है।

लेकिन भारत के द्वारा ईरान को मान्यता देना और डॉलर के मुकाबले एक कॉमन करेंसी यूनियन जैसे विचारों को उसका सम्भावित समर्थन ऐसे मसले हैं, जिन पर वॉशिंगटन बहुत धैर्यपूर्वक प्रतिक्रिया नहीं देने वाला है। ईरान पर अमेरिका ने बहुत कड़े प्रतिबंध लाद रखे हैं और अमेरिका में उसके साथ किसी भी तरह का कारोबार अवैध माना गया है। लेकिन ईरान भारत को सस्ता-तेल प्रदान कर सकता है। ऐसा हुआ तो भारत-अमेरिका सम्बंधों में खटास आ सकती है।

 

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