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जनजातीय समुदायों के बलिदानों को क्यों याद किया जाये? - श्रीनारद मीडिया

जनजातीय समुदायों के बलिदानों को क्यों याद किया जाये?

जनजातीय समुदायों के बलिदानों को क्यों याद किया जाये?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

भारत दुनिया का एक अनूठा देश है, जहां 700 से अधिक जनजातीय समुदाय निवास करते हैं। इन जनजातीय समुदायों ने अपनी उत्कृष्ट कला और शिल्प के माध्यम से जहां देश की सांस्कृतिक विरासत को समृद्ध किया है, वहीं अपनी पारंपरिक प्रथाओं के माध्यम से पर्यावरण के संवर्धन, सुरक्षा और संरक्षण में अग्रणी भूमिका निभाई है। अपने पारंपरिक ज्ञान के विशाल भंडार के साथ वे सतत विकास के पथ प्रदर्शक रहे हैं। राष्ट्र निर्माण में जनजातीय समुदायों द्वारा निभाई गई महत्वपूर्ण भूमिका को मान्यता देते हुए हमारे संविधान ने जनजातीय संस्कृति के संरक्षण और अनुसूचित जनजातियों के विकास के लिए विशेष प्रविधान किए।

जनजातीय लोग मुख्यत: वन क्षेत्रों में प्राकृतिक सद्भाव के साथ रहते हैं। औपनिवेशिक शासन की स्थापना के दौरान ब्रिटिश राज ने देश के विभिन्न समुदायों की स्वायत्तता के साथ-साथ उनके अधिकारों और रीति-रिवाजों का अतिक्रमण करने वाली नीतियों की शुरुआत की। इससे उन जनजातीय समुदायों में विशेष रूप से जबरदस्त आक्रोश पैदा हुआ, जिन्होंने प्राचीन काल से अपनी स्वतंत्रता और विशिष्ट परंपराओं, सामाजिक प्रथाओं और आर्थिक प्रणालियों को संरक्षित रखा था।

जल निकायों सहित संपूर्ण वन जनजातीय अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार था। ब्रिटिश नीतियों ने पारंपरिक भूमि-उपयोग प्रणालियों को तहस-नहस कर दिया। उन्होंने जमींदारों का एक वर्ग तैयार किया और उन्हें जनजातीय क्षेत्रों में भी जमीन पर अधिकार दे दिया। पारंपरिक भूमि व्यवस्था को काश्तकारी व्यवस्था में बदल दिया गया। इससे जनजातीय समुदाय असहाय काश्तकार या बंटाईदार बनने पर मजबूर हो गए।

अन्यायपूर्ण प्रणाली द्वारा करों को लागू करने तथा पारंपरिक जीविका को प्रतिबंधित करने के साथ कठोर औपनिवेशिक पुलिस प्रशासन द्वारा वसूली और साहूकारों के शोषण ने आक्रोश को और गहरा किया। इसी आक्रोश से जनजातीय क्रांतिकारी आंदोलनों की शुरुआत हुई। ब्रिटिश राज के खिलाफ बड़ी संख्या में जनजातीय क्रांतिकारी आंदोलन हुए और इनमें कई आदिवासी शहीद हुए।

इनमें कुछ प्रमुख नाम हैं-तिलका मांझी, टिकेंद्रजीत सिंह, वीर सुरेंद्र साई, तेलंगा खड़िया, वीर नारायण सिंह, कान्हू मुमरू, रूपचंद कंवर, लक्ष्मण नाइक, रामजी गोंड, अल्लूरी सीताराम राजू, कोमराम भीमा, रमन नांबी, तांतिया भील, गुंदाधुर, भाऊ खरे, चिमनजी जाधव, नाना दरबारे, काज्या नायक और गोविंद गुरु आदि। इनमें से सबसे करिश्माई बिरसा मुंडा थे, जो वर्तमान झारखंड के मुंडा समुदाय के एक युवा आदिवासी थे। उन्होंने एक मजबूत प्रतिरोध का आधार तैयार किया, जिसने देश के जनजातीय लोगों को औपनिवेशिक शासन के खिलाफ लगातार लड़ने के लिए प्रेरित किया।

बिरसा मुंडा सही अर्थों में एक स्वतंत्रता सेनानी थे, जिन्होंने ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार की शोषणकारी व्यवस्था के खिलाफ बहादुरी से संघर्ष किया। उन्होंने जनजातियों के बीच ‘उलगुलान’ (विद्रोह) का आह्वान करते हुए आदिवासी आंदोलन को संचालित किया। युवा बिरसा जनजातीय समाज में सुधार भी करना चाहते थे.

उन्होंने उनसे नशा, अंधविश्वास और जादू-टोना में विश्वास न करने का आग्रह किया और प्रार्थना के महत्व, भगवान में विश्वास रखने एवं आचार संहिता का पालन करने पर जोर दिया। उन्होंने जनजातीय समुदाय के लोगों को अपनी सांस्कृतिक जड़ों को जानने और एकता का पालन करने के लिए प्रोत्साहित किया। जनजातीय समुदाय उन्हें भगवान कहकर बुलाते थे। उनके द्वारा जलाई गई सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्रांति की लौ देश के जनजातीय समुदायों के जीवन में मौलिक परिवर्तन लाई।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 15 अगस्त, 2016 को स्वतंत्रता संग्राम में जनजातीय समुदाय के बहादुर सेनानियों की स्मृति में देश के विभिन्न हिस्सों में स्थायी समर्पित संग्रहालयों के निर्माण की बात कही थी, ताकि आने वाली पीढ़ियां उनके बलिदान के बारे में जान सकें। इस किस्म का सबसे पहले बनकर तैयार होने वाला संग्रहालय रांची का बिरसा मुंडा स्वतंत्रता सेनानी संग्रहालय है, जिसका उद्घाटन प्रधानमंत्री द्वारा किया जा रहा है।

जनजातीय समुदायों के बलिदानों एवं योगदान को सम्मान देते हुए भारत सरकार ने 15 नवंबर को जनजातीय गौरव दिवस के रूप में घोषित किया है। इस तिथि को भगवान बिरसा मुंडा की जयंती होती है। यह जनजातीय समुदायों के लिए एक मार्मिक क्षण है। इस अवसर पर देश विभिन्न इलाकों से संबंध रखने वाले अपने उन नेताओं-योद्धाओं को याद करता है, जिन्होंने औपनिवेशिक शासन के खिलाफ बहादुरी से लड़ाई लड़ी और अपने प्राणों की आहुति दी।

समूचा भारत इस वर्ष भारत की आजादी के 75वें वर्ष के उपलक्ष्य में ‘आजादी का अमृत महोत्सव’ मना रहा है। यह आयोजन जनजातीय समुदाय के उन असंख्य लोगों के योगदान को याद किए और उन्हें सम्मान दिए बिना पूरा नहीं होगा, जिन्होंने मातृभूमि के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से बहुत पहले, जनजातीय समुदाय के लोगों और उनके नेताओं ने अपनी मातृभूमि और स्वतंत्रता एवं अधिकारों की रक्षा के लिए औपनिवेशिक शक्ति के खिलाफ विद्रोह किया।

चुआर और हलबा समुदाय के लोग 1770 में ही उठ खड़े हुए थे। वास्तव में स्वतंत्रता हासिल करने तक देश भर के जनजातीय समुदाय के लोग अपने-अपने तरीके से अंग्रेजों से लड़ते रहे। चाहे वे पूर्वी क्षेत्र में संथाल, कोल, हो, पहाड़िया, मुंडा, उरांव, चेरो, लेपचा, भूटिया, भुइयां जनजाति के लोग हों या पूवरेत्तर क्षेत्र में खासी, नागा, अहोम, मेमारिया, अबोर, न्याशी, जयंतिया, गारो, मिजो, सिंघपो, कुकी और लुशाई आदि जनजाति के लोग हों या दक्षिण में पद्यगार, कुरिच्य, बेड़ा, गोंड और महान अंडमानी जनजाति के लोग हों या मध्य भारत में हलबा, कोल, मुरिया, कोई जनजाति के लोग हों या फिर पश्चिम में डांग भील, मैर, नाइका, कोली, मीना, दुबला जनजाति के लोग हों, इन सबने अपनी निर्भीक लड़ाइयों के माध्यम से ब्रिटिश राज को असमंजस में डाले रखा। हमारी आदिवासी माताओं-बहनों ने भी साहस भरे आंदोलनों का नेतृत्व किया। रानी गैडिनल्यू, फूलो एवं झानो मुमरू, हेलेन लेप्चा एवं पुतली माया तमांग के योगदान आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करेंगे।

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