देश की समृद्ध विरासत को पुनः प्राप्त करने की जरूरत क्यों है?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
भारत हमेशा समय से आगे रहा है, चाहे वह गणित हो या चिकित्सा। फिर जब अंग्रेजों ने भारत की ओर रूख किया तो वे हर चीज से निपुण और समृद्ध देश को देखकर एक हीन भावना में घिर गए। उन्होंने इसे विध्वंस करने और फिर अपने एजेंडे के तहत खुद के महिमामंडन में कोई कसर नहीं छोड़ी। यह हमारी समृद्ध विरासत के साथ फिर से जुड़ने का समय है।
इंडियन एजुकेशन एक्ट
थोमस बैबिंगटन मैकाले ने 1835 में अपनी साजिश को अमली जामा पहनाने के लिए हिन्दुस्तान में नई शिक्षा नीति तैयार की। शिक्षा नीति के मूल में भारतीय वेद-पुराण, शास्त्र, उपनिषद, चिकित्सा विज्ञान को खारिज कर अंग्रेजी और मिशनरीज शिक्षा व्यवस्था लागू करना था। इंडियन एजुकेशन एक्ट की ड्राफ्टिंग मैकोले ने की थी। लेकिन उसके पहले उसने यहां (भारत) के शिक्षा व्यवस्था का सर्वेक्षण कराया था, उसके पहले भी कई अंग्रेजों ने भारत के शिक्षा व्यवस्था के बारे में अपनी रिपोर्ट दी थी। अंग्रेजों का एक अधिकारी था जी डब्ल्यू लिटनर और दूसरा था थौमस मुनरो दोनों ने अलग अलग इलाकों का अलग-अलग समय सर्वे किया था।
1823 के आसपास की बात है ये लिटनर, जिसने उत्तर भारत का सर्वे किया था, उसने लिखा है कि यहां 97% साक्षरता है और मुनरो, जिसने दक्षिण भारत का सर्वे किया था, उसने लिखा कि यहां तो 100 % साक्षरता है और उस समय जब भारत में इतनी साक्षरता है और मैकोले का स्पष्ट कहना था कि:
“भारत को हमेशा-हमेशा के लिए अगर गुलाम बनाना है तो इसकी देशी और सांस्कृतिक शिक्षा व्यवस्था को पूरी तरह से ध्वस्त करना होगा और उसकी जगह अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था लानी होगी और तभी इस देश में शरीर से हिन्दुस्तानी लेकिन दिमाग से अंग्रेज पैदा होंगे और जब इस देश की यूनिवर्सिटी से निकलेंगे तो हमारे हित में काम करेंगे।“
भारत की शिक्षा व्यवस्था को बनाया निशाना
मैकोले कहता था कि जैसे किसी खेत में कोई फसल लगाने के पहले पूरी तरह जोत दिया जाता है वैसे ही इसे जोतना होगा और अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था लानी होगी। इसलिए उसने सबसे पहले गुरुकुलों को गैरकानूनी घोषित किया, जब गुरुकुल गैरकानूनी हो गए तो उनको मिलने वाली सहायता जो समाज के तरफ से होती थी वो गैरकानूनी हो गयी, फिर संस्कृत को गैरकानूनी घोषित किया और इस देश के गुरुकुलों को घूम घूम कर ख़त्म कर दिया उनमें आग लगा दी, उसमें पढ़ाने वाले गुरुओं को उसने मारा-पीटा, जेल में डाला।
उन्नत और आकांक्षी प्राचीन भारत
प्राचीन भारत उन्नत था। रेखागणितज्ञों में बौधायन का नाम सर्वोपरि है। पाइथागोरस के सिद्धांत से पूर्व ही बौधायन ने ज्यामिति के सूत्र रचे थे लेकिन आज विश्व में यूनानी ज्यामितिशास्त्री पाइथागोरस और यूक्लिड के सिद्धांत ही पढ़ाये जाते हैं। प्राचीन भारतीय वैज्ञानिक बौधायन ने पाइथागोरस से काफी पहले पाइथागोरस के सिद्धांत की खोज की। फिबोनाची अनुक्रम का नाम पीसा के लियोनार्डो फिबोनाची के नाम पर रखा गया। फाइबोनैचि द्वारा लिखित 1202 की पुस्तक लिबर अबेकी ने पश्चिम यूरोपीय गणित में इस अनुक्रम को प्रवर्तित किया, हालांकि पहले ही भारतीय गणित में इस अनुक्रम का वर्णन किया गया है। इसके विकास का श्रेय पिंगल (200 ई.पू.), विरहांक (6वीं सदी), गोपाल (सन् 1135 ई.), तथा हेमचंद्र (सन् 1150 ई.) को दिया जाता है। जिन्होने एल. फिबोनाची के पूर्व ही तथाकथित फिबोनाची संख्याओं तथा उनके निर्माण-विधि का वर्णन किया है।
भारतीय विज्ञान हजारों वर्ष पुराना
लेकिन यूरोप केंद्रित पाठ्य पुस्तक आपको यह नहीं बताएगी। मैकाले कभी नहीं चाहते थे कि हम यह जानें। आर्यभट्ट ने जर्मनी के खगोलविद् कॉपरनिकस से करीब 1,000 वर्ष पहले पृथ्वी के गोल आकार और इसके धुरी पर चक्कर लगाने की पुष्टि की। आइजक न्यूटन से पहले ब्रह्मगुप्त ने गुरुत्वाकर्षण के नियम की पुष्टि की थी। मशहूर रूसी इतिहासकार के मुताबिक ईसा मसीह से पहले ही भारत ने प्लास्टिक सर्जरी का हुनर हासिल कर लिया था और अस्पताल बनाने वाला यह पहला देश था। सुश्रुत के नाम पर आयुर्वेद भी प्रसिद्ध हैं।
सुश्रुत संहिता में शल्य चिकित्सा के विभिन्न पहलुओं को विस्तार से समझाया गया है। सुश्रुत ने 300 प्रकार की ऑपरेशन प्रक्रियाओं की खोज की। सुश्रुतसंहिता में मोतियाबिंद के ओपरेशन करने की विधि को विस्तार से बताया गया है। उन्हें शल्य क्रिया द्वारा प्रसव कराने का भी ज्ञान था। सुश्रुत को टूटी हुई हड्डियों का पता लगाने और उनको जोडऩे में विशेषज्ञता प्राप्त थी। इसी तरह के कई उदाहरण और प्रमाण दिए जा सकते हैं जिससे यह सिद्ध होता है कि भारत में महान गणितज्ञ हुए हैं जिन्होंने पश्चिमी जगत की खोज के पूर्व ही ही सबकुछ खोज लिया था।
अमेरिका ने माना सिर्फ भारत की है हल्दी
यूएस पेटेंट एंड ट्रेडमार्क ऑफिस ने 1994 में मिसीसिपी यूनिवर्सिटी के दो रिसर्चर्स सुमन दास और हरिहर कोहली को हल्दी के एंटीसेप्टिक गुणों के लिए पेटेंट दे दिया था। इस पर भारत में खूब बवाल मचा था। भारत की काउंसिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च (CSIR) ने केस मुकदमा लड़ा था। भारत ने दावा किया था कि हल्दी के एंटीसेप्टिक गुण भारत के पारंपरिक ज्ञान में आते हैं और इनका जिक्र तो भारत के आयुर्वेदिक ग्रंथों में भी है। इसके बाद पीटीओ ने अगस्त 1997 में दोनों रिसर्चर्स का पेटेंट रद्द किया। यूरोपीय पेटेंट ऑफिस ने 1995 में कृषि की बहुराष्ट्रीय कंपनी डब्ल्यू आर ग्रेस को नीम का फफूंदनाशक के रूप में पेटेंट दे दिया था। भारत की अपील पर इसे सन् 2000 में वापस कर दिया।
सत्ता की शह पर हमारा समूचा इतिहास मैकाले के नजरिए से ही लिखा गया है. जिसमें हमारे प्राचीन योग, साधना, तप, ज्ञान, वैराग्य की धरोहर को जहालत और मूढ़ता बताने की कोशिश हुई। लेकिन विडंबना ये है कि मैकाले की लागू की गई शिक्षा नीति के बाद से 185 साल से ज्यादा का वक्त गुजर चुका है, आज भी हमारे देश में जिंदा है। उसका असर हमारे देश की शिक्षा-व्यवस्था पर है, राजनीति पर है, सोच पर है।
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