Notice: Function _load_textdomain_just_in_time was called incorrectly. Translation loading for the newsmatic domain was triggered too early. This is usually an indicator for some code in the plugin or theme running too early. Translations should be loaded at the init action or later. Please see Debugging in WordPress for more information. (This message was added in version 6.7.0.) in /home/imagequo/domains/shrinaradmedia.com/public_html/wp-includes/functions.php on line 6121
क्‍यों लंदन का इंडिया हाउस बना था ब्रिटिश सरकार के लिए सिरदर्द? - श्रीनारद मीडिया

क्‍यों लंदन का इंडिया हाउस बना था ब्रिटिश सरकार के लिए सिरदर्द?

क्‍यों लंदन का इंडिया हाउस बना था ब्रिटिश सरकार के लिए सिरदर्द?

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
priyranjan singh
IMG-20250312-WA0002
IMG-20250313-WA0003
previous arrow
next arrow
०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
priyranjan singh
IMG-20250312-WA0002
IMG-20250313-WA0003
previous arrow
next arrow

इंडिया हाउस की कहानी श्यामजी कृष्ण वर्मा से शुरू होती है। वे कई भाषाओं के विद्वान थे। हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी, गुजराती पर उनका अधिकार था। इन सबके चलते वे आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से पढ़े। वे भारत में कई रियासतों के दीवान रहे। जूनागढ़ में दीवान रहते हुए अंग्रेज रेजिडेंट के साथ मतभेदों के कारण वे ब्रिटेन चले गए। उनके पास संसाधन थे जिनके आधार पर उन्होंने ब्रिटेन के सीने पर, लंदन के सबसे प्रमुख स्थान पर एक भवन खरीदा। पता था – 65, हाई गेट, क्रामवैल एवेन्यू, नार्थ लंदन। इस भवन का उद्घाटन 1 जुलाई, 1905 को हेनरी हैंडमैन द्वारा किया गया। इस ऐतिहासिक क्षण के अवसर के साक्षी दादाभाई नौरोजी और मैडम कामा भी बने।

साहसिक कदम की नींव : भारत के स्वाधीनता आंदोलन की गूंज इंडिया हाउस के अस्तित्व में आने से पूर्व ब्रिटेन में ऐसी कभी नहीं सुनी गई थी। ब्रिटेन में तब तक भारत के होमरूल की बात नहीं की जाती थी। इसी साल श्यामजी कृष्ण वर्मा ने मैडम कामा के साथ मिलकर होमरूल सोसाइटी बनाई। इसके उद्घाटन पर राष्ट्रीय नायक लाला लाजपत राय स्वयं उपस्थित थे। श्यामजी कृष्ण वर्मा भारत की स्वाधीनता के प्रति इस तरह समर्पित थे कि इंडिया हाउस बनते ही यह होमरूल सोसायटी का मुख्यालय बन गया।

ब्रिटेन की राजधानी लंदन में होमरूल की बात उठाना अत्यंत साहसिक कदम था। अब इंडिया हाउस के संपर्क में आयरलैंड, तुर्की, रूस के क्रांतिकारी थे। वे विभिन्न देशों में चल रहे क्रांतिकारी आंदोलन को समझ सकते थे और पारस्परिक सहायता कर सकते थे। जबकि आयरलैंड में आंदोलन के कारण होमरूल की बात करना ब्रिटेन में बहुत कठिन था। होमरूल सोसाइटी से जुड़ी मैडम कामा ही थीं, जिन्होंने वर्ष 1907 में पेरिस में पहली बार अंग्रेजी प्रतिनिधिमंडल के भारी विरोध के बावजूद भारतीय ध्वज लहराया। होमरूल सोसायटी का मुख्यालय बनते ही इंडिया हाउस पूरी दुनिया में चर्चा में आ गया।

स्वाभिमान का वचन : अब इंडिया हाउस में ऐसे युवाओं की जरूरत थी, जो देश के स्वाधीनता संग्राम के प्रति समर्पित हों, जिनमें आंदोलन को प्रखर करने का जज्बा हो। इसके लिए श्यामजी कृष्ण वर्मा ने अपने मित्र सरदार सिंह राणा के साथ मिलकर इंडिया हाउस में रहने वाले विद्यार्थियों के लिए शिवाजी, अकबर, महाराणा प्रताप के नाम स्कालरशिप शुरू की।

इंडिया हाउस में स्कालरशिप लेने वालों से यह बांड भरवाया जाता था कि वे अंग्रेज सरकार की नौकरी नहीं करेंगे। मतलब उस प्रतिभा का उपयोग केवल भारतीय समाज के हित में हो सके न कि अंग्रेज सरकार को एक और नौकर या पिट्ठू मिल जाए। यहीं मिले इंजीनियरिंग करने वाले मदनलाल ढींगरा। ऐसा कहते हैं कि कोर्ट में दिए उनके वक्तव्य के बारे में चर्चिल ने भी कहा कि राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत ऐसा वक्तव्य कभी नहीं देखा था। विनायक सावरकर तो इंडिया हाउस के केंद्र में थे ही।

विदेशी धरती पर भड़के देसी अंगारे : बाकी के दिलों में एक चिंगारी थी तो विनायक दामोदर सावरकर के सीने में आग थी। इंडिया हाउस से प्रेरणा लेकर लाला हरदयाल अमेरिका पहुंचे और उन्होंने भारतीयों को संगठित कर गदर पार्टी के माध्यम से क्रांति की आग लगा दी। उन्हें इस कार्य में प्रेरित करने वाले सावरकर ही थे।

सावरकर के नेतृत्व में इंडिया हाउस आक्रामक, स्वाधीनता के लिए मतवाले साहसिक युवाओं का केंद्र बन चुका था और भारत से बाहर स्वाधीनता की सबसे बुलंद आवाज। यहां नियमित रूप से बैठकें होती थीं। ऐसी ही एक बैठक अंग्रेजों द्वारा 1857 के सेनानियों को हत्यारा कहने पर विरोध स्वरूप नौकरी छोड़कर आने वाले दो युवाओं को ‘यार-ए-हिंद’ की उपाधि से सम्मानित करने के लिए आयोजित हुई थी। अंग्रेज अब समझ चुके थे कि इंडिया हाउस स्वाधीनता के दीवानों का केंद्र बन गया है।

किताब जिसने लगाई आग : इसी दौरान सावरकर ने लंदन थिएटर सर्किट में एक नाटक देखा। इसमें बहादुर शाह जफर, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई और अन्य भारतीय स्वाधीनता सेनानियों की खिल्ली उड़ाई गई थी। तब सावरकर ने 1857 के स्वाधीनता संग्राम को सही परिप्रेक्ष्य में दुनिया के सामने रखने का संकल्प लिया। उन्होंने लंदन स्थित समकालीन दस्तावेजों का अध्ययन किया, जिनसे हिंदू-मुस्लिम एकता की ध्वनि भी निकल रही थी, जो अंग्रेजों का शासन समाप्त होने की घंटी बन सकती थी।

उनके द्वारा लिखित किताब ‘भारत का पहला स्वाधीनता संग्राम’ क्रांतिकारियों की गीता बन गई। अमेरिका से निकलने वाले ‘गदर’ अखबार ने इसको प्रत्येक अंक में छापा। तब अंग्रेजों ने प्रकाशन पूर्व ही इस पर प्रतिबंध लगा दिया परंतु सावरकर ने इस पुस्तक का अनुवाद करवाया। बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में जिन पुस्तकों पर प्रतिबंध लगाया गया, उनमें प्रमुख यह पुस्तक, लाखों लोगों द्वारा पढ़ी गई।

अमिट है यह छाप : सावरकर उन लोगों में नहीं थे जो केवल स्वाधीनता के भाषण देते थे। वे चाहते थे कि भारत के सशस्त्र क्रांतिकारियों को हथियार मिलें, हथियार चलाना सीखें और हथियार बनाना भी जानें। उन्होंने यह केवल कहा नहीं बल्कि करके दिखाया। उन पर जो मुकदमा चला उसमें उन पर एक प्रमुख आरोप यह था कि उन्होंने भारत में पिस्तौलें भेजीं थी। मतलब साफ है कि इंडिया हाउस के तार भारत के सशस्त्र क्रांतिकारियों से जुड़े हुए थे। न केवल वे हथियार मुहैया करवाते थे बल्कि हथियार बनाने में भी मदद करते थे।

इन्हीं आरोपों को आधार बना सावरकर को काला पानी की सजा हुई। 1909 में कर्जन वायली की हत्या कर दी गई। लंदन के केक्सटन हाल में ही उनकी हत्या करना तो चर्चा में आया ही परंतु हत्या के बाद मदनलाल ढींगरा द्वारा अपनी जान बचाने की कोई कोशिश न करना या सार्वजनिक रूप से ब्रिटिश सरकार के भारत में मंसूबों पर प्रश्नचिन्ह उठाना ऐसी घटनाएं थीं, जिनके कारण इंडिया हाउस भारतीयों के दिलों में हमेशा के लिए छाप छोड़ गया। इंडिया हाउस के निवास ने ही मदन लाल ढींगरा को साधारण नौजवान से बलिदानी में बदल दिया।

 

 

Leave a Reply

error: Content is protected !!