सावरकर से क्यों खौफ खाती थी ब्रिटिश हुकूमत?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
विनायक सावरकर को युद्ध छेड़ने, हथियार उपलब्ध कराने और विस्फोटक सामग्री बनाने की विधियां बांटने के अपराध में भारतीय दंड संहिता की धारा 121 और 121 ए के अंतर्गत आजन्म कारावास और समस्त संपत्ति की जब्ती का दंड देते हैं।’
…बात यहीं तक नहीं रुकी। यह फैसला सुनाया गया था 23 दिसंबर, 1910 को। 23 जनवरी, 1911 को जैक्सन हत्याकांड की सुनवाई शुरू हुई। गलत साक्ष्यों पर टिका फैसला 30 जनवरी, 1911 को आया, जिसमें विनायक सावरकर को जैक्सन हत्या के लिए उकसाने का दोषी ठहराते हुए दूसरा आजन्म कारावास सुनाया गया। दो आजन्म कारावास यानी अंडमान जेल में 50 वर्ष।
उस समय विनायक की आयु 28 वर्ष थी। दोहरे आजन्म कारावास की सजा सुनकर भी विनायक न रोए, न डरे। उनके भाई बाबा राव पहले ही अंडमान में आजन्म कारावास में भेजे जा चुके थे। विनायक अपने स्थान पर खड़े होकर अंग्रेज जज से बोले, ‘मैं निसंकोच तुम्हारे कानूनों की सजा झेलने को तैयार हूं क्योंकि मेरा विश्वास है कि कष्ट झेलने और बलिदानों के एकमेव मार्ग से ही हमारी मातृभूमि एक सुनिश्चित विजय की ओर बढ़ सकती है।’ जज और अदालत में बैठे लोग स्तब्ध रह गए। कैसा है यह युवक, जो मात्र 28 वर्ष की आयु में 50 वर्ष जेल जाने को इसलिए तैयार है क्योंकि इसी मार्ग से देश स्वतंत्र होगा। ये थे विनायक दामोदर सावरकर – क्रांतिकारियों के प्रेरणा स्रोत, स्वाधीनता की अलख जगाने वाले, 1857 के गदर को पहली बार भारत का स्वाधीनता संग्राम घोषित करने वाले अमर सेनानी।
आत्मविश्वास के प्रतीक : यह विडंबना है कि जिन कम्युनिस्टों के ‘देशद्रोहात्मक कार्यों’ पर कांग्रेस सरकार ने संसद में श्वेत पत्र जारी किया, आज वही सावरकर की देशभक्ति पर सवाल उठाने का दुस्साहस कर रहे हैं। अत्यंत कठिन परिस्थितियों और हताशा के घने काले बादलों के मध्य यदि कोई एक बिजली चमकती थी तो वह थी सावरकर के आत्मविश्वास और दृढ़ निश्चय की। मार्सेल्स की ही बात देखें, जब भारत से हजारों मील दूर से उन्हें एस.एस. महाराज नामक समुद्री जहाज में स्वदेश लाया जा रहा था।
दरअसल अगस्त 1910 में चर्चिल ने बहुत क्रुद्ध होकर आदेश दिया था कि विनायक सावरकर को गिरफ्तार कर भारत ले जाया जाए। उनके आदेश की पंक्तियां थीं, ‘मैं राइट आनेवल विंस्टन लियोनार्ड स्पेंसर चर्चिल-जो शक्ति मुझे भगौड़े अपराध कानून द्वारा दी गई है उसके अंतर्गत-आदेश देता हूं कि विनायक दामोदर सावरकर को वापस भारत साम्राज्य में भेज दिया जाए।’
उस समय सावरकर इंग्लैंड में इंडिया हाउस के माध्यम से अपना मिशन पूरा कर रहे थे। वह मिशन था भारत की मुक्ति और उसके लिए अधिक से अधिक जन और संसाधन जुटाने का। देशभर के विभिन्न भागों से क्रांतिकारी सावरकर को अपना आदर्श मानने लगे थे। फलस्वरूप लंदन में उनके नाम वारंट जारी किया गया था। उन पर आरोप थे कि वे सम्राट के विरुद्ध युद्ध छेड़ रहे हैं और भारतीय दंड सहिता की धारा 121 ए के अंतर्गत ब्रिटिश इंडिया को सम्राट की संप्रभुता से अलग करने का षड्यंत्र कर रहे हैं।
उनको भारत लाने वाला समुद्री जहाज मार्सेल्स (फ्रांस) पहुंचा तो जब वे शौचालय के रास्ते समुद्र में कूदे और फ्रांस की धरती पर कदम रखा तो योजना थी कि वी.वी. एस अय्यर मादाम कामा और विरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय उनको ले जाएंगे, लेकिन उनको आने में थोड़ा विलंब हुआ और जो ब्रिगेडियर पेसक समुद्री सीमा के रक्षक के नाते तैनात था वह अंग्रेजी नही जानता था। सावरकर ने उतरते ही उससे कहा मुझे अपने संरक्षण में लो, मेरी सहायता करो और मुझे एक मजिस्ट्रेट के पास ले चलो -इतने में ब्रिटिश अधिकारी आ गए और ज्यादा गहरी सुरक्षा में सावरकर को भारत ले आए।
सावरकर ने अपने केबिन में बैठे अधिकारियो को शांति से चेतावनी दी कि वे उन्हें गालियां न दें और उस समय उन्होंने एक कविता लिखी जो स्व. लता मंगेशकर ने अपने सुरों में गाई है – ‘अनादि मी, अनंत मी अवध्य मी’ अर्थात- मैं अनादि हूं, मैं अनंत हूं, मैं अवध्य हूं। मुझे मार सके ऐसा कौन शत्रु जन्मा है! काला पानी में सावरकर को कोल्हू चलाने की सजा दी गई थी। सूखे नारियल का तेल निकालना कितना कठिन हो सकता है, उसकी कल्पना करना भी हमारे लिए संभव नहीं होगा। उन्होंने उस पर भी लिखा -‘जब कभी मैं कोल्हू चलाता हूं तो स्वयं को इस बात से संतोष देता हूं कि तेल की वह प्रत्येक बूंद, जो कोल्हू के नीचे बरतन में गिरती है, वह संपूर्ण देश में भड़क रही पावन अग्नि को जलाए रखने में सहायता देगी।’
दीवारें सुनाती हैं दास्तां : जब कागज न मिले, कलम न मिले, स्मृति जितना काम दे उससे भी अधिक सोचना और लिखना हो तो क्या करें? सावरकर ने जेल की दीवारों पर अपने नाखूनों से इतिहास लिखा। जेल की दीवारें आज भी सावरकर के उस इतिहास लेखन का प्रमाण हैं। सावरकर को जान-बूझकर वह कालकोठरी दी गई थी जिसके सामने प्रतिदिन भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों को फांसी दी जाती थी।
ताकि सावरकर का मनोबल टूट जाए। अत्यंत कष्ट सहते हुए भी सावरकर ने अंडमान में मुस्लिम कैदियों का शुद्धिकरण कर उन्हें वापस हिंदू बनाने का अभियान चलाया और इसमें प्रसिद्ध क्रांतिकारी भाई परमानंद ने भी उनका साथ दिया। उनके तीन आंदोलन काला पानी की जेल में चले- शुद्धि आंदोलन, जन संगठन और शिक्षा। सावरकर सदैव दुष्टों के संहार के लिर्ए हिंदू देवी-देवताओं द्वारा किए गए युद्ध का उदाहरण देते थे। उन्होंने कहा कि हमारे महान सेनानी कौन हैं? वह भगवान राम हैं, जिन्होंने रावण का संहार किया। हमारे महान रथी और कर्मयोग के भगवान कौन हैं? वह श्रीकृष्ण हैं।
हे भारत कौन सी सेना तुम्हारे बढ़ते रथ को रोक सकती है? यह देरी क्यों? जागो भाई हम स्वयं ही अपनी रक्षा कर सकते हैं। सावरकर को इस बात से कष्ट होता था कि हिंदू र्ही हिंदू का विरोधी हो रहा है। वह समझ नहीं पा रहा है कि अंग्रेजों की दासता स्वीकार कर वह भारत माता की बेड़ियों को काटना कठिनतर बनाता जा रहा है। हिंदुओं के हृदय में स्वातंत्र्य अग्नि क्यों नहीं जलती? वे क्यों दासता को जीवन का आधार मान बैठे हैं और इसमें ही सुख अनुभव कर रहे हैं?
वैज्ञानिक मानसिकता को बढ़ावा : उन्होंने मुसलमानों को चेतावनी देते हुए कहा था कि तुम यह विश्वास छोड़ दो कि कुरान के किसी भी शब्द पर बहस नहीं हो सकती क्योंकि वह ईश्वर का अविनाशी संदेश है। नागरिक असंतोष के समय अरब के पिछड़े और शोषित लोगों के मध्य जिस प्रकार की बातें आकर्षक होंगी, वे हर काल के लिए सत्य नही हो सकतीं। ऐ मुसलमानों, सोचो कि यूरोपीय लोगों ने तुम्हें कहीं का नहीं छोड़ा।
हमारे समय के लिए उपयोगी विज्ञान में उत्कर्ष हासिल किया। तुम लोगों को स्पेन से बाहर निकाला गया। तुम्हारे नरसंहार हुए और तुम्हें आस्ट्रिया, हंगरी, सर्बिया और बुलगरिया में कुचला गया। मुगल हिंदुस्तान पर तुम्हारे कब्जे को खत्म किया गया। यही कारण रहा मुस्तफा कमाल अता तुर्क ने तमाम उन मजहबी कानूनों के शिकंजे तोड़ डाले जिसने तुर्की राष्ट्र को पिछड़ा बनाए रखा था। शरीयत के कानूनों की जगह उन्होंने स्विट्जरलैंड, फ्रांस और जर्मनी से नागरिक और सैन्य कानून ले लिए। सावरकर चाहते थे कि देश में वैज्ञानिक मानसिकता बढ़े। उन्होंने हिंदुओं को कर्मकांड, अस्पृश्यता और रूढ़िवादिता से दूर करने के लिए आह्वान किया। आज यही बात कहने का साहस किस नेता में है?
भारत सर्वोपरि के प्रणेता : सावरकर को मानने का अर्थ है अग्निपथ पर चलने की तैयारी। हिजाब, बुरका, किसान, खालिस्तान, मतांतरण- ये सब भारत को खोखला करने, प्रगतिपथ बाधित करने वाले विदेशी धन और मन के षड्यंत्र हैं ताकि अपने ही देशवासियों द्वारा अपना ही देश दुनिया में बदनाम हो सके। इन षड्यंत्रों के विरुद्ध सावरकर हिंदुत्व की धधकती अग्नि के स्फुलिंग थे। ‘क्षमा नहीं, समझौता नहीं, भारत सर्वोपरि’ यही सावरकर का हिंदुत्व है।
सावरकर ने आसेतु हिमाचल नवीन क्रांतिकारी पैदा किए। सुभाष चंद्र बोस को विदेश जाकर सैन्य बल एकत्र करने और तब ब्रिटिश हुकूमत को हराने की सलाह दी। जिसे उन्होंने माना। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लाखों स्वयंसेवकों के आदर्श प्रेरक हैं। गांधी जी से मतभेद के बावजूद दोनों में परस्पर सम्मान था।
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