क्या अतीक अहमद जेल से अपराध तंत्र का संचालन नहीं करेगा?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

जैसी घटनाओं की कल्पना आप फिल्मों में भी नहीं कर सकते, वैसी किसी के साथ वास्तविक जीवन में भी हो सकती हैं। इसे अच्छे से बयान कर सकते हैं लखनऊ के रियल एस्टेट कारोबारी मोहित जायसवाल। करीब पांच साल पहले लखनऊ से उनका अपहरण होता है और उन्हें वहां से करीब तौन सौ किमी दूर दूसरे शहर की एक जेल में बंद माफिया अतीक अहमद के पास ले जाया जाता है।

किसी अपहृत को जेल में बंद किसी अपराधी के सामने पेश करने का काम दुनिया में शायद ही कहीं हुआ हो, लेकिन दिसबंर 2018 में देवरिया जेल में यह काम हुआ। यहां की जेल में अतीक और उसके गुर्गे मोहित जायसवाल को बुरी तरह पीटते हैं और उनकी चार कंपनियों को अपने साथियों के नाम लिखने को कहते हैं। मरता क्या न करता वाली हालत के चलते मोहित को यह काम करना पड़ता है।

पिछले दिनों अतीक के शूटरों ने प्रयागराज में उन्हें और उनके दो अंगरक्षकों को गोलियों से भून दिया। इन्हीं उमेश पाल के अपहरण के आरोप में गत दिवस अतीक और उसके दो साथियों को उम्रकैद की सजा सुनाई गई है। उमेश का अपहरण 2006 में किया गया था। तब अतीक के लिए ‘सैंया भए कोतवाल’ वाली स्थिति थी, क्योंकि यूपी में समाजवादी पार्टी का शासन था और मुलायम सिंह मुख्यमंत्री थे। अतीक खुद सपा का सांसद था। उमेश उसके खिलाफ एफआइआर दर्ज करने की हिम्मत 2007 में तब जुटा पाए, जब मायावती सत्ता में आ गईं।

 

फिलहाल अतीक अहमद दुर्दांत माफिया के तौर पर जाना जा रहा है, लेकिन एक समय वह नेता के तौर पर भी जाना जाता था। वह पांच बार विधायक और एक बार सांसद रह चुका है। उसने तीन बार निर्दलीय के रूप में विधायक का चुनाव जीता। चौथी बार सपा के टिकट से और पांचवीं बार अपना दल से। 2004 में उसने फूलपुर से सपा प्रत्याशी के तौर पर लोकसभा का चुनाव जीता। इसे राजनीति के पतन की पराकाष्ठा कहें या राजनीति के अपराधीकरण का चरम कि जो फूलपुर कभी जवाहरलाल नेहरू का निर्वाचन क्षेत्र हुआ करता था, वहां से एक खूंखार अपराधी समाजवादी चोला धारण कर संसद पहुंच गया।

उस पर बसपा के पूर्व विधायक राजू पाल की हत्या का भी आरोप है। अतीक ने राजू पाल की हत्या इसलिए कराई, क्योंकि उसका भाई अशरफ उस विधानसभा सीट से चुनाव हार गया था, जो उसकी हुआ करती थी। राजू पाल को दिनदहाड़े मारा गया। वह जिस गाड़ी से घर आ रहे थे, उसे घेरकर ताबतोड़ फायरिंग की गई। राजू पाल के समर्थक उन्हें एक टेंपों में लेकर अस्पताल भागे। हत्यारों को लगा कि वह जिंदा हैं। उन्होंने टेंपों का पीछा किया और उसका रास्ता रोककर फिर से अंधाधुंध फायरिंग की। राजू पाल मृत अवस्था में अस्पताल पहुंचे।

पिछले दिनों जब अतीक अहमद को सड़क मार्ग से अहमदाबाद से प्रयागराज लाया गया, तब सोशल नेटवर्क साइट्स पर यह प्रश्न तैरता रहा कि उसे ला रही गाड़ी कब पलटेगी? कुछ लोग उसकी गाड़ी पलटने की कामना करते रहे। क्यों? शायद इसीलिए कि लोगों को कानून के शासन पर उतना भरोसा नहीं रह गया, जितना होना चाहिए। भरोसा उठ जाने का कारण भी है। अतीक ने जिस तरह देवरिया जेल में बंद रहते मोहित जायसवाल का अपहरण कराकर उन्हें अपने समक्ष तलब कराया और साबरमती जेल में रहते उमेश पाल को मरवा दिया, उससे कानून के शासन का कोई मतलब ही नहीं रह गया।

इस पर हैरानी नहीं कि उमेश पाल अपहरण मामले में उसे सुनाई गई उम्रकैद की सजा से लोग संतुष्ट नहीं। उनका सवाल है कि आखिर इसकी क्या गारंटी कि वह जेल में रहते हुए फिर से अपने अपराध तंत्र का संचालन नहीं करने लगेगा? क्या किसी के पास इसका जवाब है? अतीक अहमद पर सौ से अधिक मुकदमे हैं। ये हत्या, हत्या के प्रयास, अपहरण, उगाही, जमीनों पर कब्जे आदि के हैं। उसे पहली बार किसी मामले में अपने किए की सजा मिली है। उन कारणों की तह तक जाने की जरूरत है, जिनके चलते अतीक को इसके पहले किसी मामले में सजा नहीं सुनाई जा सकी।

एक तांगे वाले के बेटे अतीक ने अपराध की दुनिया से तभी नाता जोड़ लिया था, जब वह महज 17 साल का था। यदि उसे सत्ता का संरक्षण नहीं मिलता तो वह इतना बड़ा माफिया सरगना और नेता नहीं बन पाता। पहले उसे कांग्रेस के शासन में संरक्षण मिला, फिर सपा के शासन में। पता नहीं इस समय अतीक किस दल में है, लेकिन यह सबको पता है कि उसकी पत्नी बसपा में है।

यदि अतीक जैसे माफिया तत्वों के प्रति योगी शासन की निगाह टेढ़ी नहीं होती तो शायद अभी भी उसका कुछ बिगड़ने वाला नहीं था। अतीक का खौफ केवल उसके विरोधियों और आम लोगों में ही नहीं था। उसका खौफ कहां तक था, इसे इससे समझ सकते हैं कि 2012 में जब उसने चुनाव लड़ने के लिए जमानत याचिका दायर की तो इलाहाबाद हाई कोर्ट के एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं, पूरे दस जज एक-एक करके उसकी याचिका सुनने से पीछे हट गए थे।

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