Breaking

क्या हिंदी एक नारे, सम्मेलन, बैनर, उत्सव की भाषा बनी रहेगी?

क्या हिंदी एक नारे, सम्मेलन, बैनर, उत्सव की भाषा बनी रहेगी?

०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
previous arrow
next arrow
०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
previous arrow
next arrow

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

सितंबर का पूरा महीना हिंदी का है- बस हिंदी राजकाज की भाषा बन जाए. भाषा बहते पानी की मानिंद है, वह खुद ही स्वच्छ होती है, अपना रास्ता बनाती है और आगे बढ़ती है. खासकर हिंदी तो देश की कई सौ लोकभाषाओं का गुच्छा है, जिसमें नये शब्दों, मुहावरों व लोकाेक्तियों का आना-जाना लगा रहता है, कुछ किलोमीटर में भौगोलिक या सांस्कृतिक क्षेत्र बदला और भाषा में स्थानीय बोली का असर आ गया. ऐसी सैकड़ों बहनों की भाषा को राजभाषा बनाने के लिए आखिर इतना प्रयास क्यों करना पड़ रहा है?

जब हम हिंदी में संप्रेषण के किसी माध्यम की चर्चा करते हैं, उस पर प्रस्तुत सामग्री पर विमर्श करते हैं, तो सबसे पहले गौर करना होता है कि समीचित माध्यम को पढ़ने-देखनेवाले कौन हैं, उनकी पठन क्षमता कैसी है और वे किस उद्देश्य से इस माध्यम का सहारा ले रहे हैं.

जैसे अखबार का पाठक अलग होता है, जबकि खेती-किसानी की पुस्तकों के खरीदार का नजरिया भिन्न. वहीं ऑफिस की नोटिंग, पत्र का पाठक, लेखक और उसका उद्देश्य अलग होता है. विडंबना है कि हिंदी को राजकाज की भाषा बनाने के सरकारी प्रयासों ने हिंदी को अनुवाद की, और वह भी भाव-विहीन शाब्दिक-संस्कृतनिष्ठ हिंदी की उबाऊ भाषा बना कर रख दिया है.

साल 1857 के आसपास महज एक प्रतिशत लोग साक्षर थे, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि उससे पहले भाषा, साहित्य, ज्ञान-विज्ञान, आयुर्वेद, ज्योतिष, अंतरिक्ष आदि का ज्ञान हमारे पास नहीं था. वह था बोलियों में, संस्कृत, प्राकृत या पाली में, जिसे सीमित लोग समझते और इस्तेमाल करते थे. फिर अमीर खुसरो के समय आयी हिंदी, हिंद के संस्कृति, साहित्य व ज्ञान की भाषा, बोलियों का एक समुच्चय. वह भक्ति काल का दौर था. समस्त हिंदी साहित्य के श्रेष्ठ कवि और उत्तम रचनाएं इस युग में प्राप्त होती हैं.

रचनाकारों में कई कथित छोटी जातियों के थे, बहुत पढे-लिखे नहीं थे, परंतु अनुभवी थे. कई मुस्लिम लेखक भी सूफी या साझी संस्कृति की बात कर रहे थे. इस तरह से हिंदी और उसकी बोलियों के उदय ने ज्ञान को आम लोगों तक ले जाने का रास्ता खोला और इसीलिए हिंदी को प्रतिरोध या पंरपराएं तोड़नेवाली भाषा कहते हैं. हिंदी के विद्रोही स्वभाव के विपरीत जब इसे लोक से परे हटाकर राजकाज की या राजभाषा बनाने का प्रयास होता है, तो उसमें सहज संप्रेषणीय शब्दों का टोटा प्रतीत होता है.

जिस हिंदी की स्थापना के लिए पूरे देश में हिंदी पखवाड़ा मनाया जाता है, उसकी सबसे बड़ी दुविधा है मानक हिंदी यानि संस्कृतनिष्ठ हिंदी. सनद रहे, संस्कृत का स्वभाव शास्त्रीय और दरबारी है, जबकि हिंदी का स्वभाव लोक है और विद्रोही. ऐसा नहीं कि आम लोगों की हिंदी में संस्कृत से कोई परहेज है. उसमें संस्कृत से लिये गये तत्सम शब्द भी हैं, तो संस्कृत से परिशोधित हो कर आये तद्भव शब्द भी, जैसे- अग्नि से आग, उष्ट्र से ऊंट आदि. इसमें देशज यानी बोलियों से आये स्थानीय शब्द और विदेशज शब्द भी हैं, जो अन्य भाषाओं से आये.

राजभाषा में सिखाया जाता है कि अमुक पंजी के आलोक में प्रस्तुत आख्या में निर्दिष्ट है- इसे ना तो लिखनेवाला, ना ही पढनेवाला और ना ही जिसके लिए है, वह समझ रहा है. यदि आंकड़ों पर भरोसा करें, तो हिंदी में अखबार व अन्य पठन सामग्री के पाठक बढ़ रहे हैं, लेकिन जब हिंदी में शिक्षा की बात आती है, तो वह पिछड़ती दिखती है. यह जानना और समझना अनिवार्य है कि हिंदी की मूल आत्मा उसकी बोलियां हैं और विभिन्न बोलियों को संविधान सम्मत भाषाओं में शामिल कराने, बोलियों के लुप्त होने पर बेपरवाह रहने से हिंदी में विदेशी और अग्रहणीय शब्दों का अंबार लग रहा है.

हिंदी के इस देश में जहां की जनता गांव में बसती है, अधिकतर लोग उसे बोलते-समझते हैं, दृश्य और श्रव्य माध्यमों में हिंदी विकसित एवं प्रचारित हुई है. इसके लिए मानक हिंदी कुछ बनी है, किंतु यहां विशुद्ध खड़ी बोली हिंदी नहीं है, मिश्रित शब्द व वाक्य प्रसारित और प्रचारित हो रहे हैं. यह चिंताजनक है कि समाचार पत्रों ने अपने स्थानीय संस्करण निकालने तो शुरू किये, लेकिन उनसे स्थानीय भाषा गायब हो गयी.

अब सभी जगह एक जैसे शब्द आ रहे हैं. लगता है कि हिंदी के भाषा-समृद्धि के आगमन में व्यवधान-सा हो गया है. तिस पर सरकारी महकमे संस्कृतिनिष्ठ हिंदी ला रहे हैं. असल में वे जिसे मानक हिंदी कहते हैं, असल में वह सीसे के लेटर प्रेस की हिंदी थी, जिसमें कई मात्राओं, आधे शब्दों के फॉन्ट नहीं होते थे. आज कंप्यूटर की प्रकाशन दुनिया में लेड प्रेस के फॉन्ट की बात करनेवाले असल में हिंदी को थाम रहे हैं.

यदि हिंदी को वास्तव में एक जीवंत भाषा बना कर रखना है, तो शब्दों का लेन-देन पहले अपनी बोलियों व फिर भाषाओं से हो, वरना हिंदी एक नारे, सम्मेलन, बैनर, उत्सव की भाषा बनी रहेगी. जान लें कि हिंदी का आज का मानक रूप बुंदेली, ब्रज, राजस्थानी आदि बोलियों से ही उभरा है और इसकी श्री-वृद्धि के लिए इन बोलियों को ही हिंदी की पालकी संभालनी होगी. ऐसे में सरकारी आफिसों के कर्मचारी खुद हिंदी को अपनायेंगे, बस उसे राजभाषा के शब्दकोष से निकालकर लोकभाषा में ढाल दें.

Leave a Reply

error: Content is protected !!