Notice: Function _load_textdomain_just_in_time was called incorrectly. Translation loading for the newsmatic domain was triggered too early. This is usually an indicator for some code in the plugin or theme running too early. Translations should be loaded at the init action or later. Please see Debugging in WordPress for more information. (This message was added in version 6.7.0.) in /home/imagequo/domains/shrinaradmedia.com/public_html/wp-includes/functions.php on line 6121
क्या तिब्बत को लेकर हमारी विदेश नीति बदल जायेगी? - श्रीनारद मीडिया

क्या तिब्बत को लेकर हमारी विदेश नीति बदल जायेगी?

क्या तिब्बत को लेकर हमारी विदेश नीति बदल जायेगी?

०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
priyranjan singh
IMG-20250312-WA0002
IMG-20250313-WA0003
previous arrow
next arrow
०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
priyranjan singh
IMG-20250312-WA0002
IMG-20250313-WA0003
previous arrow
next arrow

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

तिब्बत के पितृ पुरुष दलाई लामा की जन्मतिथि पर बीते दिनों देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फोन कर उन्हें शुभकामनाएं दी हैं। इसे भले ही जन्मतिथि के अवसर पर शुभकामना के तौर पर समझा जा रहा हो, लेकिन व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने पर इसके निहितार्थ बहुत अधिक हैं। इस पूरे प्रकरण को समझने के लिए सर्वप्रथम तिब्बत और फिर दलाई लामा को समझना होगा।

तिब्बत अपने विशिष्ट भौगोलिक स्थिति और पारिस्थितिकी तंत्र के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण है। सांस्कृतिक रूप से भी बेहद समृद्ध तिब्बत विश्व की छत है। यह खनिज और जल संसाधन से भी परिपूर्ण भूमि है। ऐसे में मानवता, संस्कृति और प्रकृति विरोधी चीन का यहां कब्जा संपूर्ण विश्व के लिए भी एक चेतावनी भरा खतरा है। वैसे मतांध चीन के लिए असली चुनौती दलाई लामा हैं, जिनसे निपटने के लिए चीनी कूटनीतिज्ञ निरंतर प्रयास कर रहे हैं।

उल्लेखनीय है कि स्वतंत्र तिब्बत को ड्रैगन की ओर से चीनी भूभाग बताए जाने पर 13वें दलाई लामा ने अतीत में बहुत साफ शब्दों में कहा था हम केवल पड़ोसी हैं। बाद के वर्षो में जब वर्तमान दलाई लामा के समय चीन पीपुल्स लिबरेशन आर्मी का तिब्बत में प्रवेश हुआ तो परिस्थितियां बदलीं। ऐसे में अपने लोगों और धार्मिक सांस्कृतिक मान्यताओं की अक्षुण्णता के लिए एक छोटी सी टोली के साथ उन्हें वर्ष 1959 में भारत आना पड़ा।

तब से अब तक चीनी उत्पीड़न से भागे हर तिब्बती नागरिक को स्नेह और आश्रय देने का काम दलाई लामा ने निरंतर किया है। ऐसे लाखों तिब्बती नागरिक आज भारत से लेकर यूरोप, अमेरिका तक अपना जीवन-यापन करते हुए दलाई लामा के संरक्षण में तिब्बत मुक्ति के अभियान में लगे हैं। वहीं तिब्बत में रहने वाले करीब 60 लाख तिब्बतियों के लिए भी दलाई लामा एक आशा की किरण हैं। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि तिब्बत आज भी चीन की दुखती रग बना हुआ है।

दुनिया के किसी वैश्विक मंच से जब भी तिब्बत की चर्चा छिड़ती है तो ड्रैगन दलाई लामा के गांव के रास्ते बंद करता नजर आता है। हर बार उत्तर पूर्व तिब्बत के ताकस्तेर स्थित उनके गांव में उनके स्वजनों पर निगरानी बढ़ा दी जाती है। स्वतंत्र तिब्बत के अहिंसक अभियान के सामने चीन की कुटिल योजना नए नए रूप में सामने आती रहती है।

बीजिंग की बर्बरता ने तिब्बतियों की पहचान को कुचलने के लिए उनके धार्मिक जीवन से दलाई लामा की पहचान को जड़ से उखाड़ने की अगणित कोशिशें की है। पहले किसानों को यहां से शहरी क्षेत्रों में आधुनिक आवास और अवसर के नाम पर स्थानांतरित किया गया। फिर तिब्बती युवाओं के विवाह चीनियों संग कराए गए। इतना ही नहीं, तिब्बती जनमानस का दलाई लामा की धार्मिक शिक्षाओं में भाग लेने के लिए भारत यात्र को भी लगभग असंभव सा बनाया गया।

दलाई लामा की तस्वीरों को इंटरनेट मीडिया पर पोस्ट करना भी यहां एक दंडनीय अपराध है। इसके लिए एक साल तक की जेल की सजा भी हो सकती है। तिब्बती में धर्म और लामा की निंदा के लिए चीनी अधिकारियों ने कुछ नए लोगों को लामा बनाकर सांस्कृतिक परंपराओं पर हमले शुरू कर दिए हैं। दलाई लामा के बाद के दूसरे सबसे महत्वपूर्ण अवतारी गुरु पंचेम लामा को गायब कराया गया।

फिर इनकी जगह अपने एक व्यक्ति को इस पद पर बैठाते हुए तिब्बतियों का मुंह बंद करना चाहा। किंतु चीन यहां भी असफल रहा। ऐसे में अब चीन वर्ष 2010 से स्थगित चीन तिब्बत वार्ता के बाद कुछ नए पैंतरे आजमा रहा है। तिब्बत के पोटाला महल और जोखांग मठ पर आयोजित होने वाले उत्सव में चीनी लामा बड़े-बड़े पोस्टर लेकर प्रदर्शन करते हैं। इनके माध्यम से वे यह बताने का प्रयास करते हैं कि तिब्बतियों के प्रतिनिधि और आध्यात्मिक प्रमुख दलाई लामा नहीं, अपितु चीनी राष्ट्राध्यक्ष शी चिन¨फग हैं। दरअसल ताइवान, हांगकांग और मकाउ की तरह तिब्बत भी चीन की दुखती रग है।

आसान नहीं तिब्बत में चीन की आगे की राह: वैसे अब यह देखना भी बेहद दिलचस्प होगा कि दलाई लामा अपने 90वें जन्म दिवस पर क्या घोषणा करते हैं। एक अन्य संकेत में वर्तमान दलाई लामा के अंतिम अवतार होने के भी संकेत हैं। जहां तक तिब्बत का प्रश्न है तो इन्होंने वर्ष 2011 में ही राष्ट्राध्यक्ष का पद छोड़ था। अपने जीवनकाल में स्वेच्छा से पद छोड़ने और नई व्यवस्था के रूप लोकतंत्र को लाने वाले वे प्रथम विशिष्ट लामा हैं।

दरअसल तिब्बती परंपराओं में सदियों से दलाई या पंचेम लामा धार्मिक ही नहीं, अपितु राजनीतिक प्रमुख भी होते रहे हैं। किंतु अब ये केवल धार्मिक प्रमुख होंगे। वहीं इस नवीन घोषणा के बाद अब चीन के लिए दोहरी चुनौती बढ़ गई है। अब उसे दलाई लामा के साथ ही तिब्बती संसद का भी सामना करना पड़ेगा, जिसके मतदाता दुनियाभर में फैले हैं। वहीं इस सरकार के प्रतिनिधि दुनिया के 12 अलग अलग देशों में नियुक्त भी हैं। भारत, दक्षिण अफ्रीका, अमेरिका और यूरोप के कई देशों में वे रहकर वहां की सरकारों के संपर्क में हैं।

वहीं इन राजनयिक मिशनों के माध्यम से तिब्बत सरकार का संपर्क और स्वीकार्यता पड़ोस के भी कई देशों में है। लिहाजा वर्तमान दलाई लामा के नेतृत्व में दुनियाभर में तिब्बत की स्वतंत्रता की मांग मजबूती से बढ़ी है। इस कड़ी में तिब्बत पॉलिसी एक्ट 2002 पर अमेरिकी प्रशासन ने भी हस्ताक्षर कर चीन की चिंता बढ़ा दी है। इस एक्ट के तहत अमेरिका ने अपनी वचनबद्धता को दोहराते हुए कहा है कि 14वें दलाई लामा के उत्तराधिकारी चयन में तिब्बती समुदाय की ही बात सुनी जाएगी। उस समय अमेरिका के राष्ट्रपति रहे जॉर्ज डब्लू बुश के कार्यकाल में इस संदर्भ में नियम भी बनाए गए थे। इसका परिमार्जित रूप वर्ष 2020 में अमेरिकी संसद द्वारा पारित किया गया है।

दलाई लामा के विचारों को आगे बढ़ाए भारत: वैसे जिस मसले पर चर्चा की जा रही है, वह विमर्श वर्तमान दलाई लामा के बिना अधूरा रह जाएगा। अपने निर्वासन के बाद वह कभी भी रुके नही हैं। दुनिया के करीब 52 देशों की यात्र करके वे अनेक सभाओं और गोष्ठियों को संबोधित कर चुके हैं। इसके अलावा 50 से अधिक पुस्तकें भी वे लिख चुके हैं। बात अगर इनके मानवीय मूल्य आधारित विचार, शांति एवं धार्मिक सहिष्णुता संबंधी कार्यो की करें तो इसने लोकप्रियता की एक नई ऊंचाई को छुआ है। इस नाते इन्हें नोबेल पुरस्कार सहित दुनियाभर से 60 से अधिक मानद उपाधि और सम्मान भी मिले हैं।

चीन-तिब्बत विवाद को अगर भारत के नजरिये से देखें तो ये भारत के हित-अनहित से भी जुड़ता है। बात अगर तिब्बत के भौगोलिक विस्तार की हो तो यह पश्चिम में भारत के लद्दाख और पूरब में अरुणाचल प्रदेश तक विस्तृत है। एक प्रकार से कहें तो भारत की सीमा पर तिब्बत बसा है। वहीं तिब्बतियों के लिए भारत सदैव से उनका दूसरा घर है। इस बात की चर्चा दलाई लामा अपने बहुतेरे वक्तव्यों में कर चुके हैं। तिब्बती इतिहास में इससे संबंधित अनेक साक्ष्य मौजूद हैं। कभी भारत के संरक्षण में रहने वाला तिब्बत नेहरू सरकार की गलत नीतियों के कारण चीन द्वारा हड़प लिया गया। जहां का कैलाश मानसरोवर तिब्बतियों के साथ ही भारतीयों के लिए भी धरती का सबसे पवित्र स्थान है।

समय आ गया कि भारत अपनी एक ठोस चीन-तिब्बत नीति के साथ आगे बढ़े। लोकतंत्र और भारत में गहरी आस्था के बावजूद दलाई लामा को अब तक भारतीय संसद को संबोधित करने का अवसर नहीं मिला है। अत: उन्हें इसके लिए आमंत्रित किए जाने पर भी विचार होना चाहिए। साथ ही, भारत को चीनी विस्तारवाद के विरुद्ध दलाई लामा के दौरे देश-विदेश में कराने चाहिए। भारत में जहां लद्दाख, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश में किए जाने वाले उनके दौरों से चीन की पेशानी पर बल पड़ेगा, वहीं चीन के पड़ोसी देशों का दलाई लामा द्वारा किया जाने वाला हर दौरा चीन के विरुद्ध एक सशक्त अंकुश का काम करेगा। इस दिशा में भारत को धीरे धीरे ही सही, लेकिन कदम आगे बढ़ाना चाहिए।

भारत की विदेश नीति नई दिशा के साथ नए दौर में है। हाल के दिनों में भारत ने इजराइल से लेकर ताइवान तक कई नए दोस्त बनाए हैं। जिन देशों एवं शासन से राजनयिक संबंधों को लेकर कभी भारतीय सत्ता प्रतिष्ठान में संशय और संकोच था, मोदी सरकार के अनेक तथ्यों पर सकारात्मक पहल के कारण वह बदल चुका है। अब पारस्परिक हित और भारत का भला होना ही भारतीय मैत्री का एकमेव आधार है। दुनिया को लेकर अब भारत का नजरिया पहले से ज्यादा पुख्ता और प्रबल दिखने लगा है।

इस कड़ी में बीते दिनों वियतनाम के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री से भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बातचीत कर शुभकामनाएं दी हैं। चंद रोज पहले ही उन्होंने दलाई लामा से भी फोन पर बातचीत की थी। दलाई लामा और वियतनाम के अपने समकक्ष से की गई ये बातचीत अपने आप में एक स्पष्ट संकेत है कि भारतीय विदेश नीति नई करवट ले रही है। कल तक जिन मसलों पर भारतीय विदेश नीति मौन ङिाझक के साथ आगे बढ़ रही थी, अब उन्हीं मसलों पर भारतीय विदेश नीति मुखर है।

हम किसी एक देश की कीमत पर दूसरे देश से संबंध स्थापित करने की विदेश नीति को पीछे छोड़ कर अलग अलग देश, अलग अलग संबंध पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। अब हम अफगानिस्तान-म्यांमार की कीमत पर अमेरिका से और पूर्व सोवियत संघ के देशों से रूस की कीमत पर संबंध नहीं रखते हैं। इसके हालिया उदाहरण भारतीय विदेश मंत्री के वर्तमान जॉर्जयिा दौरे और संयुक्त राष्ट्र में म्यांमार को लेकर भारत की नीति से हम समझ सकते हैं।

इसके अलावा, भारत अब इजराइल की कीमत पर इस्लामिक मुल्कों से संबंध नहीं रखता। अब हम इजराइल से अलग और अरब देशों से अलग संबंध रखते हैं। वहीं बात अगर भारत के पड़ोसी देशों की करें तो अब तक हमारी विदेश नीति पर चीनी प्रभाव-दबाव स्पष्ट तौर पर दिखता था। परंतु केंद्र की वर्तमान नरेंद्र मोदी सरकार ने इस दिशा में दृढ़ता से आगे बढ़ते हुए ताइवान और वियतनाम से लेकर तिब्बत और मंगोलिया तक अपनी नीतियां बिल्कुल स्पष्ट तरीके से रखी है। इसी कड़ी में हमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की फोन डिप्लोमेसी और भारत की तिब्बत नीति को देखना समझना होगा।

Leave a Reply

error: Content is protected !!