वाकई सधेंगे बिहार में साधे गए समीकरण या खिलेगा कुछ और ही गुल?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
राजनीति में जो दिखता है, वो होता नहीं और जो होता है, वो दिखता नहीं। केंद्रीय मंत्रिमंडल के विस्तार में बिहार की हिस्सेदारी भी कुछ ऐसी ही है। सहयोगी जनता दल यूनाइटेड (जदयू) व पुराने सहयोगी लोक जनशक्ति पार्टी के पारस खेमे को शामिल कर एक तरह से सभी समीकरण साधे गए दिखाई दे रहे हैं, लेकिन वाकई ये सध गए हैं इस पर राजनीतिक गलियारे की फुसफुसाहट कुछ और ही कह रही है। फिलहाल अभी सब शांत दिख रहा है। अपने कोटे से एक मंत्री कम करके जदयू व पारस खेमे को समाहित कर भाजपा फिर एक बार बड़प्पन दिखाती दिख रही है, लेकिन खलबली हर तरफ मची है।
दो साल पहले मोदी सरकार के दोबारा सत्ता में आने के बाद मंत्रिमंडल में जदयू को एक पद दिया जा रहा था, जिसने उसे दरकिनार कर दिया था। इस बार तीन से चार पद की दावेदारी थी। नीतीश सहित पूरी जदयू भले ही शांत थी, लेकिन राष्ट्रीय अध्यक्ष रामचंद्र प्रसाद सिंह (आरसीपी) केंद्र में अपनी हिस्सेदारी की आवाज लगातार उठा रहे थे। आरसीपी पूर्व आइएएस हैं और नीतीश से उनका साथ 23 साल पुराना है।
अरमान धरे रह गए
दोनों एक ही जिले नालंदा से आते हैं और जातिवाद में जकड़ी बिहार की राजनीति में दोनों एक ही जाति से हैं। लेकिन इधर दोनों के बीच सबकुछ ठीक-ठाक दिखाई नहीं दे रहा था। मंत्रिमंडल के लिए पहला नाम जदयू संसदीय दल के नेता ललन सिंह का माना जा रहा था। लेकिन विस्तार के समय दिल्ली से केवल आरसीपी को फोन आया और वे नीतीश से मिलकर दिल्ली निकल लिए। तब भी यही हवा बनी थी कि चार मंत्री जदयू कोटे से बनाए जा रहे हैं। लेकिन बाद में केवल आरसीपी सिंह ने ही कैबिनेट मंत्री की शपथ ली और बाकी के अरमान धरे रह गए। दो साल पहले के नकारे गए फार्मूले पर मान जाना भाजपा से कम सीटें पाकर मुख्यमंत्री बने नीतीश के कद पर सवाल खड़ा कर रहा है और ललन सिंह समेत ऐसे नेताओं को बेचैन भी जो केंद्र में जाने के अरमान पाले थे।
आरसीपी के बजाए किसी और को अध्यक्ष बनाने की चर्चा
आरसीपी सिंह पार्टी के अध्यक्ष हैं और केंद्र से सौदेबाजी के लिए वही अधिकृत थे। नीतीश बार-बार यही दोहरा भी रहे थे। अब केवल आरसीपी को मंत्री पद मिलने पर हर तरफ भले ही चुप्पी हो, लेकिन भीतर की बेचैनी ऊपर से शांति दिखाते हुए रिस रही है। एक व्यक्ति-एक पद के आधार पर आरसीपी के बजाए किसी और को अध्यक्ष बनाने की चर्चा भी होने लगी है। ललन सिंह या हाल ही में पार्टी में आए और संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष बनाए गए उपेंद्र कुशवाहा के नाम की चर्चा है, लेकिन बैकवर्ड की राजनीति करने वाली जदयू में फारवर्ड ललन का अध्यक्ष बनना समीकरण में फिट नहीं हो रहा, इसलिए उपेंद्र पर निगाहें ज्यादा टिकी हैं। उनके जिलों के दौरे तय हो गए हैं, जिसमें टीकाकरण का हाल लेने से लेकर दलित टोलों तक में बैठकें वे करेंगे।
आगे पता चलेगा कि शांति बनी रहेगी या कुछ और ही गुल खिलेगा?
आरसीपी ने भी जल्दी ही इस्तीफा देने को कह भी दिया है, लेकिन प्रदेश अध्यक्ष उमेश कुशवाहा ने यह कहकर विरोध की चिंगारी भड़का दी कि तीन साल तक आरसीपी ही बने रहेंगे। पार्टी की मजबूती में उनका बहुत योगदान है। उमेश की बात का ही असर है कि शुक्रवार को सुबह ललन सिंह, उपेंद्र कुशवाहा के घर पहुंच गए। राजनीतिक गलियारे में नाराजगी की बात बही, लेकिन दोनों ने इसे नकार दिया। अब आगे पता चलेगा कि शांति बनी रहेगी या कुछ और ही गुल खिलेगा?
चाचा ने मारी बाजी
दूसरी तरफ चाचा-भतीजा (पशुपति कुमार पारस और चिराग पासवान) के बीच बंटी लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) में बाजी पारस के हाथ लगी और वे भाई रामविलास पासवान की जगह मंत्रिमंडल में स्थान पा गए। विधानसभा चुनाव में मोदी के हनुमान बने चिराग को उम्मीद थी कि उनकी पार्टी पर मजबूत पकड़ होने के कारण पारस को मंत्री नहीं बनाया जाएगा। उन्होंने ऐसा होने पर कोर्ट जाने की धमकी भी दी थी।
कितना कारगर साबित होता है दांव
अब भाजपा से उनका मोहभंग हो गया है। अब वे जनता के बीच सहानुभूति बटोरने के लिए जिले-जिले यात्र कर रहे हैं और साथ ही पारस गुट को मान्यता देने के लिए लोकसभा अध्यक्ष के फैसले के खिलाफ दिल्ली हाईकोर्ट भी चले गए हैं। अब देखना है कि कद्दावर मंत्री रविशंकर प्रसाद को हटाकर बिहार में जदयू को समाहित करने वाली भाजपा ने रामविलास की जगह चिराग के बजाए पारस को तवज्जो देकर जो दांव चला है, वह कितना कारगर साबित होता है, क्योंकि पिछले विधानसभा चुनाव में सत्तापक्ष को विपक्ष से मात्र 12 हजार वोट ज्यादा मिले थे। जबकि चिराग के नेतृत्व में 25 लाख से ज्यादा वोट लोजपा पाई थी, जिसने भाजपा के खिलाफ प्रत्याशी नहीं उतारे थे। इस घटनाक्रम के बाद तेजस्वी लगातार चिराग पर टकटकी लगाए हैं।