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क्या मानवाधिकार दिवस मनाने की सार्थकता सफल होगी? - श्रीनारद मीडिया

क्या मानवाधिकार दिवस मनाने की सार्थकता सफल होगी?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

विश्व युद्ध, आतंकवाद एवं असंतुलित समाज रचना की विभीषिका से झुलस रहे लोगों के दर्द को समझ कर और उसको महसूस करने की दृष्टि से संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने विश्व मानवाधिकार दिवस घोषित किया। प्रत्येक वर्ष 10 दिसम्बर को यह दिवस दुनियाभर में मनाया जाता है। दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण वैश्विक प्रतिज्ञाओं में से एक ‘मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा है, इस वर्ष उसकी 75वीं वर्षगांठ है।

इस वर्ष मानवाधिकार दिवस की थीम ‘सभी के लिए स्वतंत्रता, समानता और न्याय’ है, जो मानव के अस्तित्व एवं अस्मिता को अक्षुण्ण रखने के संकल्प को बल देता है। किसी भी इंसान की जिंदगी, आजादी, बराबरी और सम्मान का अधिकार है- मानवाधिकार। यह दिवस एक मील का पत्थर है, जिसमें समृद्धि, प्रतिष्ठा, न्याय एवं शांतिपूर्ण सह अस्तित्व के प्रति मानव की आकांक्षा प्रतिबिंबित होती है।

विश्व मानवाधिकार घोषणा पत्र का मुख्य विषय शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगारी, आवास, संस्कृति, खाद्यान्न व मनोरंजन से जुड़ी मानव की बुनियादी मांगों से संबंधित है। विश्व के बहुत से क्षेत्र गरीबी से पीड़ित है, जो बड़ी संख्या वाले लोगों के प्रति बुनियादी मानवाधिकार प्राप्त करने की सबसे बड़ी बाधा है। उन क्षेत्रों में बच्चे, वरिष्ठ नागरिकों व महिलाओं के बुनियादी हितों को सुनिश्चित नहीं किया जा सकता। इसके अलावा नस्लवादी भेद मानवाधिकार कार्य के विकास को बड़ी चुनौती दे रहा है। इसी तरह आदिवासी एवं दलितों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार भी मानवाधिकार का बड़ा मुद्दा है।

महिलाओं, बच्चों एवं वृद्धों की उपेक्षा एवं प्रताड़नाएं भी मानवाधिकार के सम्मुख बड़े संकट हैं। बात पेट जितनी पुरानी और भूख जितनी नई है “मानवाधिकार” की। दुनिया में जहां-जहां भी संघर्ष चल रहे हैं, चाहे सत्ता परिवर्तन के लिए हैं, चाहे अधिकारों को प्राप्त करने के लिए, चाहे जाति, धर्म और रंग के लिए वहां-वहां मानवाधिकारों की बात उठाई जाती रही है। हमारे देश में भी वक्त चाहे राजशाही का था, चाहे विदेशी हुकूमत का और चाहे स्वदेशी सरकार का हर समय किसी न किसी हिस्से में संघर्ष चलते रहते हैं। डेढ़ सौ करोड़ के देश में विचार फर्क और मांगों की लंबी सूची का होना स्वाभाविक है।

भारतीय संविधान मानवाधिकार की न सिर्फ गारंटी देता है, बल्कि इसे तोड़ने वाले के लिये कठोर सजा का प्रावधान किया गया है। भारत में 28 सितंबर, 1993 से मानव अधिकार कानून अमल में आया। 12 अक्टूबर, 1993 में सरकार ने राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग का गठन किया। आयोग के कार्यक्षेत्र में नागरिक और राजनीतिक के साथ आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकार भी आते हैं, जैसे- बाल मजदूरी, एचआईवी, एड्स, स्वास्थ्य, भोजन, बाल विवाह, महिला अधिकार, हिरासत और मुठभेड़ में होने वाली मौत, अल्पसंख्यकों और अनुसूचित जाति और जनजाति के अधिकार आदि।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी मानवाधिकारों के लिये सतर्क एवं प्रतिबद्ध है। उन्होंने कहा भी कि एक ऐसे समय में जब पूरी दुनिया विश्व युद्ध की हिंसा में झुलस रही थी, भारत ने पूरे विश्व को ‘अधिकार और अहिंसा’ का मार्ग सुझाया। भारत आत्मवत सर्वभूतेषु के महान आदर्शों, संस्कारों और विचारों को लेकर चलने वाला देश है। आत्मवत सर्वभूतेषु यानि जैसा मैं हूं वैसे ही सब मनुष्य हैं। मानव-मानव में, जीव-जीव में भेद नहीं है। भारत ने लगातार विश्व को समानता और मानव अधिकारों के जुड़े विषयों पर नया विजन दिया है।

बीते दशकों में ऐसे कितने ही अवसर विश्व के सामने आए हैं, जब दुनिया भ्रमित हुई है, भटकी है। लेकिन भारत मानवाधिकारों के प्रति हमेशा प्रतिबद्ध रहा है, संवेदनशील रहा है। निश्चित ही नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में आज देश ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास और सबका प्रयास’ के मूल मंत्र पर चल रहा है। ये एक तरह से मानव अधिकार को सुनिश्चित करने की ही मूल भावना है।

तमाम प्रयासों के बावजूद मानव अधिकारों के हनन में हमारा देश पीछे नहीं है। आजादी के इतने सालों बाद भी बंधुआ मजदूरी को पूरी तरह से खत्म नहीं किया जा सका है। बाल मजदूरी जो एक मासूम की जिंदगी के साथ खिलवाड़ है, वह भी खुलेआम  होता है। गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी आज भी मुंह बाए खड़ी हैं। रोटी, कपड़ा और मकान जो लोगों की मूलभूत आवश्यकताएँ हैं वे भी हमारी सरकार पूरी नहीं कर पा रही हैं। शिक्षा का अधिकार, भोजन का अधिकार, रोजगार का अधिकार, स्वच्छ जीवन का अधिकार- ये सभी बुनियादी अधिकारों का हनन होना आज के तिथि में एक घिनौना पाप है, त्रासदी है, विडम्बना है।

अगर आज भी हमारे देश के लोगों को जाति के नाम पर, धर्म के नाम पर, संप्रदाय के नाम पर, भाषा के नाम पर, क्षेत्र के नाम पर भेदभाव का शिकार होना पड़ता है तो लानत है इस देश के लोगों पर और यहाँ की सरकार पर। सरकारें यदि ईमानदारी से प्रयत्न करती तो इन समस्याओं को सालों पूर्व खत्म कर सकती थी लेकिन नहीं, सरकार और सरकार में बैठे उनके अफसर इनके अधिकारों की रक्षा नहीं करते बल्कि अधिकतर मामलों में अत्याचारियों, बाहुबलियों, अमीरों का साथ देकर बेबस और लाचार लोगों पर बर्बर व्यवहार करते हैं।

आज भी देश में बहुत सारे ऐसे जगह हैं जहाँ लोग खुलकर साँस भी नहीं ले पा रहे हैं। दिल्ली में प्रदूषण की समस्या एक मानवाधिकार की बड़ी समस्या है। इलाज के नाम पर एवं शिक्षा के नाम पर जो लूट-खसोट सरेआम होती है, वह भी मानवाधिकार का खुला उल्लंघन है। जनता हर दिन राज्य के पुलिस और सैनिकों के मनमाने उपद्रवों की शिकार हो रही हैं।

मानव अधिकारों के साथ उनके कर्तव्य भी जुड़े होते हैं, उनका भी पालन अतिआवश्यक है। विश्व मानवाधिकार दिवस इन्ही मानवीय अधिकारों को बरकरार रखने और उनके हनन के खिलाफ आवाज बुलंद करने का सशक्त माध्यम है। मानवाधिकार के संरक्षण के लिए और विशेषाधिकारों (स्वयं प्राप्त) के प्रतिबंध के लिए कौन लड़ेगा? साम्प्रदायिक दंगे, चोरी, लूट, महिलाओं पर अत्याचार, नशीली वस्तुओं का गैर कानूनी धंधा, रोजमर्रा की बात हो गई है। शांति-प्रिय नागरिकों का जीना मुश्किल हो गया है।

जन प्रतिनिधियों और राजनीतिज्ञों पर लोगों का विश्वास नहीं रहा। कौन बचाएगा मानवाधिकार को? कौन रेखा खीचेगा असामाजिक तत्वों और सामान्य नागरिक के मानवाधिकारों के बीच? राष्ट्र के सर्वोच्च मंच लोकसभा के अध्यक्ष के आसन पर लिखा है- ”धर्म-चक्र प्रवर्तनार्थ“। धर्म के चक्र को न्यायपूर्वक चलाएं, इसे रुकने न दें। इसमें इतना और जोड़ें-न्याय के चक्र को धर्मपूर्वक चलाएं।

देश में आदिवासी दोयम दर्जे के नागरिक जैसा जीवनयापन कर रहे हैं। जबकि केंद्र सरकार आदिवासियों के नाम पर हर साल हजारों करोड़ रुपए का प्रावधान बजट में करती है। इसके बाद भी आजादी के अमृतकाल में उनकी आर्थिक स्थिति, जीवन स्तर में कोई बदलाव नहीं आया है। स्वास्थ्य सुविधाएँ, पीने का साफ पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं आदि मूलभूत सुविधाओं के लिए वे आज भी तरस रहे हैं।

आदिवासी अब भी समाज की मुख्य धारा से कटे नजर आते हैं। इसका फायदा उठाकर नक्सली उन्हें अपने से जोड़ लेते हैं। सरकार आदिवासियों को लाभ पहुँचाने के लिए उनकी संस्कृति और जीवन शैली को समझे बिना ही योजना बना लेती हैं। ऐसी योजनाओं का आदिवासियों को लाभ नहीं होता, अलबत्ता योजना बनाने वाले जरूर फायदे में रहते हैं।

युद्ध हमेशा मानवता के खिलाफ होता है। रूस और यूक्रेन, इजरायल एवं हमाम के युद्ध के दौरान मानव व्यक्तित्व और मानवाधिकार का जो उल्लंघन हो रहा है, उसने संपूर्ण विश्व के शांतिवादियों को आन्दोलित कर दिया और यह सर्वत्र अनुभव किया जाने लगा कि यदि मानव के अधिकारों की सुरक्षा के लिए कोई कारगर कदम नहीं उठाया गया, तो मानवाधिकार महज एक मजाक बनकर रह जाएगा। मानवाधिकार दिवस एक प्रेरणा है, एक संकल्प है मानव को सम्मानजनक, सुरक्षित, सुशिक्षित एवं भयमुक्त जीवन का।

जीवन के चौराहे पर खड़े होकर कोई यह सोचे कि मैं सबके लिये क्यों जीऊं? तो यह स्वार्थ-चेतना मानवाधिकार की सबसे बड़ी बाधा है। हम सबके लिये जीयें तो फिर न युद्ध का भय होगा, न असुरक्षा की आशंका, न अविश्वास, न हिंसा, न शोषण, न संग्रह, न शत्रुता का भाव, न किसी को नीचा दिखाने की कोशिश, न किसी की अस्मिता को लूटने का प्रयत्न। मानव जीवन के मूलभूत अधिकारों का हनन को रोकना एवं सारेे निषेधात्मक भावों की अस्वीकृति का निर्माण ही नया मानव जीवन निर्मित कर सकेंगे और यही मानवाधिकार दिवस की सार्थकता होगी।

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