क्या रोजगार को लेकर हमें अपनी नीति, राह और सोच बदलनी होगी?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
54.6 लाख भारतीयों ने अपनी नौकरी गंवा दी. सीएमआइई के आंकड़ों के अनुसार, अगस्त, 2021 तक देश के सभी रोजगार योग्य युवाओं में से 33 फीसदी के बेरोजगार होने का अनुमान लगाया गया था. दो करोड़ भारतीय सालाना नौकरी के बाजार में प्रवेश कर रहे हैं.
जाहिर है कि इसके मुकाबले कुछ नौकरियां ही पैदा हो रही हैं. रोजगार के लिहाज से अनौपचारिक क्षेत्र एक स्वाभाविक आधार है, पर नोटबंदी, जीएसटी और लॉकडाउन के कारण इसकी स्वाभाविकता पर भी खतरा बढ़ा है. इस दौरान निश्चित रूप से भारत ने एक प्रतिस्पर्धी रेडीमेड गारमेंट उद्योग विकसित कर लाखों रोजगार सृजित करने के अवसर का लाभ उठाया है, पर यह संभावना के लिहाज से मामूली उपलब्धि है.
सूक्ष्म, लघु और मझोले आकार के अनौपचारिक क्षेत्र के उद्योगों को प्रोत्साहित करके बड़ी कामयाबी हासिल की जा सकती थी, क्योंकि यूरोप, कनाडा और अमेरिका के साथ व्यापार सौदों के तहत एक बड़े बाजार तक पहुंच की संभावना पहले से है, पर हालात में सुधार के आसार नहीं दिख रहे हैं.
साल 2015 और 2019 के बीच भारत का कपड़ा निर्यात लगभग सपाट रहा. यह नीतिगत निष्क्रियता का हासिल है. विश्व बैंक की 2017 की रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले एक दशक में चीन से 30 लाख प्रत्यक्ष और 90 लाख अप्रत्यक्ष नौकरियां बांग्लादेश स्थानांतरित हो गयी हैं. भारत इस अनुकूलता का लाभ उठा सकता था. बड़े मिलों की दुर्दशा इस नाकामी की याद दिलाती हैं कि भारत अगला चीन हो सकता था.
भारतीयों के लिए दैनिक आवागमन का खर्च खासा भारी पड़ रहा है. नवंबर में ज्यादातर शहरों में पेट्रोल की कीमत सौ रुपये प्रति लीटर से ऊपर पहुंच चुकी थी. ईंधन की कीमतों में यह तेज उछाल करों में भारी वृद्धि के कारण है. बीते सात सालों में पेट्रोल पर तीन गुना और डीजल पर सात गुना कर बढ़े हैं.
इलेक्ट्रिक वाहनों के उपयोग को बढ़ाने से स्थिति में फर्क पड़ सकता है. आकलन के मुताबिक, अगर सब कुछ उम्मीद के मुताबिक रहे, तो 2030 तक तेल उपभोग को 156 मिलियन टन यानी 3.5 लाख करोड़ रुपये तक कम करने में मदद मिलेगी. रसोई का खर्च भी बीते कुछ सालों में खुदरा महंगाई बढ़ने से बेतहाशा बढ़ा है. इस साल जनवरी से अक्तूबर के बीच रसोई गैस के दामों में 30 फीसदी का इजाफा हुआ है.
खाद्य तेलों के विभिन्न प्रकारों की कीमतों में भी भारी वृद्धि हुई है. दिल्ली में ही जून, 2020 से जून, 2021 के बीच पैकेज्ड सरसों और वनस्पति तेल की कीमत 30 फीसदी, जबकि सूर्यमुखी के तेल की कीमत में 40 फीसदी तक का उछाल आया है. इस अनपेक्षित वृद्धि का एक कारण पाम ऑयल के आयात पर निर्भरता है. दिलचस्प है कि बाकी तेल के मामले में भारत 1990 के दशक से ही आत्मनिर्भर हो चुका है.
कीमत वृद्धि की यह स्थिति बायोडीजल को तरजीह देने से भी बनी है. नीति निर्माताओं को इस बात पर जोर देना चाहिए कि देश में तिलहन की खेती का रकबा बढ़े, जो फिलहाल ब्राजील के मुकाबले एक-तिहाई है. पाम ऑयल के आयात पर कर-शुल्कों में कमी लायी जाए. साथ ही, अगर स्थानीय उत्पाद (खासतौर पर सरसों और सूर्यमुखी के तेल) की खपत बढ़ाने के लिए अभियान चले, तो विश्व बाजार से नियंत्रित होनेवाली कीमतों से निबटने में मदद मिलेगी.
महंगाई का तो आलम यहां तक पहुंच गया है कि साग-सब्जी के दाम भी बेतहाशा बढ़े हैं. ज्यादातर सब्जियों के भाव अक्तूबर में 14.2 फीसद तक बढ़े हैं. महंगाई के इस प्रसार से नेस्ले, पारले, आइटीसी जैसी कंपनियों के भी रोजमर्रा इस्तेमाल होनेवाले उत्पाद अछूते नहीं हैं. पिछले साल नवंबर के मुकाबले एक साल में या तो 20 फीसद तक इनके दाम बढ़े हैं या फिर इनकी पैकिंग का वजन और आकार कम हो गया है.
इन तमाम स्थितियों ने भारतीयों को और गरीब बना दिया है. इस दौरान आम भारतीयों को बड़े पैमाने पर निजी कर्ज का सहारा लेना पड़ा है. साल 2012 और 2018 के बीच ऋणग्रस्त भारतीय परिवारों की संख्या में काफी वृद्धि हुई. साल 2018 में 35 फीसदी ग्रामीण और 22.4 फीसदी शहरी परिवार कर्ज की चक्की में पिसने को मजबूर हुए.
आलम यह हुआ कि औसत ग्रामीण परिवार पर 59,728 रुपये, तो औसत शहरी परिवार पर इसके दोगुना कर्ज का बोझ आ गया. परिवारों की खस्ताहाली यहां तक पहुंच गयी कि घर के जेवर तक गिरवी रखने पड़ रहे हैं. ऐसे बकाया कर्ज का आंकड़ा अगस्त 2020 से जुलाई 2021 तक बढ़ कर 77.4 फीसद तक पहुंच गया. इन सबसे देश गरीबी के गहरे दुष्चक्र में फंस रहा है.
इस दुरावस्था का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि गरीब भारतीयों की संख्या (जिनकी क्रय शक्ति प्रतिदिन दो डॉलर से कम या उसके बराबर दैनिक आय हो) 2020 में 5.9 करोड़ से बढ़ कर 2021 में 13.4 करोड़ तक पहुंच गयी है. यह उम्मीद के आकाश से पाताल तक पहुंचने वाली स्थिति है. स्थिति में सुधार के लिए नये सिरे से कारगर पहल करनी होगी. खासतौर पर कारपोरेट राहत के बजाय आम लोगों के कर राहत के बारे में सोचना होगा.
रिजर्व बैंक को क्रिप्टोकरेंसी पर बहस करने और मुद्रास्फीति नियंत्रित करने पर जोर देने के बजाय रोजगार बढ़ाने की नीति अपनानी होगी. इससे पहले कि भारत की शिनाख्त दक्षिण एशिया के सबसे गरीब और मोहताज मुल्क के तौर पर होने लगे, हमें अपनी नीति, राह और सोच बदल लेनी चाहिए.