क्या कामकाजी आबादी बढ़ने का हमें लाभ नहीं मिलेगा ?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

भारत के डेमोग्राफिक डिविडेंड (जनसांख्यिकीय लाभ) के बारे में बहुत बातें की जाती हैं, लेकिन क्या वह वास्तविक है? एक तुलनात्मक परीक्षण करते हैं। बीते दशक में भारत की आबादी 16 करोड़ बढ़ी है। इसकी तुलना में चीन की आबादी इससे आधी ही यानी 8 करोड़ बढ़ी है। कई विश्लेषकों का मत है कि जनसंख्या-वृद्धि से भारत को लाभ हुआ है, क्योंकि बीते दशक में जन्मे लाखों लोग जल्द ही कार्यक्षम आबादी का हिस्सा बन जाएंगे और फिर रिटायर होने तक अपने आर्थिक योगदानों से देश की इकोनॉमी को लाभ पहुंचाते रहेंगे।

इन मायनों में देखें तो भारत को चीन की तुलना में दोगुना जनसांख्यिकीय लाभ मिलना चाहिए, ठीक? हम्म्म… नहीं तो। कारण, चीन की तुलना में भारत का प्रति व्यक्ति लाभांश बहुत कम है। इसकी दो वजहें हैं : एक, चीनियों की तुलना में एक औसत भारतीय कम काम करता है। चीन के 68 प्रतिशत की तुलना में भारत का श्रमशक्ति योगदान 45 प्रतिशत ही है।

इसका यह मतलब है कि बीते एक दशक में जन्मे 16 करोड़ भारतीयों में से 7.2 करोड़ ही कार्यशक्ति का हिस्सा बनेंगे, वहीं चीन में पिछले एक दशक में जन्मे 8 करोड़ लोगों में से 5.4 करोड़ कामगारों का हिस्सा बनेंगे। यानी जहां भारत में चीन की तुलना में 8 करोड़ अधिक लोग जन्मे हैं, वहीं उसकी कार्यशक्ति में चीन की तुलना में केवल 1.8 करोड़ ही अधिक लोगों का इजाफा होगा।

दूसरा कारण है, कामगारों की कार्यकुशलता। इसका पैमाना है शिक्षा। इस क्षेत्र में चीन हमसे कहीं बेहतर स्थिति में है। 15 प्रतिशत चीनियों के पास कॉलेज डिग्री है, जबकि भारत में यह 11 प्रतिशत के ही पास है। यकीनन, ये तमाम आंकड़े भर ही हैं। लेकिन पॉइंट यह है कि अगर हमने अपनी कार्यशक्ति सहभागिता दर नहीं बढ़ाई और कामगारों की स्किल्स को नहीं सुधारा तो चाहे जितना डेमोग्राफिक डिविडेंड हो, उससे हमें ज्यादा लाभ नहीं मिलने वाला है।

अर्थशास्त्री प्रणब सेन के शब्दों में भारत के कार्यशक्ति सहभागिता के आंकड़े हताश कर देने वाले हैं। वे न केवल कम हैं, बल्कि और गिर रहे हैं। इसका एक बड़ा कारण है भारतीय महिलाओं की श्रमशक्ति में कम सहभागिता। आलोचकों का मत है कि भारत जैसे समाज में, जहां महिलाएं घर के कामकाज में केंद्रीय भूमिका निभाती हैं और घर की देखभाल में उनका योगदान सबसे अहम होता है, वहां इस नॉन-मार्केट काम को भी एक रोजगार की श्रेणी में रखा जाना चाहिए और इसकी वैल्यू को देश की जीडीपी में जोड़ना चाहिए।

इस तर्क को काटना कठिन होगा। मिसाल के तौर पर, अगर कोई स्त्री वही काम किसी और के घर में करती तो उसे इसका वेतन दिया जाता और यह राष्ट्रीय जीडीपी में जोड़ा जाता। यह तर्क केवल रोजमर्रा के कामकाज तक ही सीमित नहीं है। अगर आप खुद ही अपने टैक्स रिटर्न पर काम कर रहे हैं तो यह जीडीपी में नहीं जुड़ेगा, लेकिन अगर कोई अकाउंटेंट आपके लिए यह काम करता है तो यह जीडीपी में गिना जाएगा। लेकिन अधिकतर मामलों में इस तरह की गतिविधियों का मूल्यांकन करना दूभर होता है।

क्योंकि अगर आप या आपकी मेड बहुत अच्छा खाना नहीं बना पाते या साफ-सफाई अच्छे-से नहीं करते तो दोनों के कामों को समान मानना एक अच्छा विश्लेषण नहीं कहलाएगा। बात केवल मूल्यांकन की ही नहीं, पसंद और प्रेरणा की भी है।

जिन समाजों में पेड-वर्क में महिलाओं की सहभागिता एक आम चलन है, वहां उनके पास अपनी क्षमताओं के अनुरूप काम चुनने की आजादी भी होती है। साथ ही, वे जो काम करना चाहती हैं, उसके लिए स्किल्स का विकास भी कर सकती हैं। घर के कामकाज कोई प्रोफेशन नहीं है, इसलिए उसमें प्रोफेशनल ग्रोथ नहीं होती।

साथ ही किसी बुजुर्ग सदस्य या दिव्यांग बच्चे की देखभाल करने जैसे चुनौतीपूर्ण कार्यों की भी वहां परख नहीं होती है, जबकि अगर यही काम किसी कार्यस्थल पर किया जाए तो न केवल इसमें पेशेवर विकास होगा, बल्कि वेतन भी ऊंचा मिलेगा। घर के काम में कोई पेंशन नहीं मिलती, सामाजिक सुरक्षा नहीं होती, न ही जॉब मोबिलिटी होती है। घर के कामकाज में दक्षता हासिल करने से भी आय नहीं बढ़ती है। तो हम फिर से अपने मूलभूत प्रश्न पर लौटें कि क्या भारत का डेमाग्राफिक डिविडेंड वास्तविक है? है तो, लेकिन कृपया उसे अधिक न आंकें।

अगर हमने अपनी कार्यशक्ति सहभागिता दर नहीं बढ़ाई और कामगारों की स्किल्स को नहीं सुधारा तो चाहे जितना डेमोग्राफिक डिविडेंड हो, उससे हमें ज्यादा फायदा नहीं मिलने वाला है।

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