वीरभद्र सिंह के जाने से हिमाचल राजनीति के बहुत बड़े युग का अंत.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

हिमाचल प्रदेश के छह बार मुख्यमंत्री व केंद्रीय मंत्री रह चुके वीरभद्र सिंह राजनीति में इतिहास रचा है। प्रदेश में ऐसी कोई भी राजनीतिक चर्चा नहीं, जिसमें वीरभद्र सिंह का नाम न आता हो। राजधानी शिमला के बिशप कॉटन स्कूल में जब रामपुर बुशहर रियासत के राजकुमार वीरभद्र ने बिशप कॉटन स्कूल में दाखिला लिया था तो किसी ने नहीं सोचा होगा कि स्कूल का नाम उस शख्सियत से जुडऩे जा रहा है जो आगे चलकर 6 बार हिमाचल का मुख्यमंत्री बनेगा। वहीं वीरभद्र सिंह अक्सर कहते थे कि उन्हें तो प्रोफेसर बनना था, पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी की वजह से वह राजनीति में आए।

स्कूल पास आउट करने के बाद वीरभद्र ने दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज में हिस्ट्री ऑनर्स में बीए और एमए की। हसरत थी हिस्ट्री का प्रोफेसर बन छात्रों को पढ़ाने की। पर विधि को कुछ और ही मंजूर था। जो वीरभद्र छात्रों को इतिहास पढ़ाना चाहते थे, उसने खुद इतिहास बना दिया।

सबसे अधिक समय तक हिमाचल का मुख्यमंत्री रहना का रिकॉर्ड वीरभद्र सिंह के ही नाम है। वे  6 बार हिमाचल के मुख्यमंत्री रहे। वे ऐसे नेता है जिन्होंने पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू से लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ काम किया है।

1962 में हुई चुनावी राजनीति में आए

वीरभद्र सिंह ने दिल्ली के सेंट स्टीफन कॉलेज से अपने एमए की डिग्री पूरी की। देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू चाहते थे कि वीरभद्र सिंह ने राजनीति में आए। पंडित जवाहर लाल नेहरू की बेटी और तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष इंदिरा गांधी भी तब वीरभद्र से खासी प्रभावित थी। इंदिरा के कहने पर 1959 में वीरभद्र सिंह दिल्ली से हिमाचल लौटे और लोगों के बीच जाकर उनके लिए काम करना शुरू किया। वीरभद्र का ताल्लुख तो रामपुर बुशहर रियासत से है। नतीजन 1962 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने उन्हें महासू वर्तमान शिमला सीट से उम्मीदवार बनाया। वीरभद्र आसानी से चुनाव जीत गए और पहली मर्तबा लोकसभा पहुंचे। इसके बाद

1967 और 1972 में वीरभद्र मंडी से चुनाव लड़ लोकसभा पहुंचे। हालांकि आपातकाल के बाद 1977 के लोकसभा चुनाव में वीरभद्र को हार का मुंह देखना पड़ा। उन्होंने अपनी  निष्ठा नहीं बदली और इंदिरा गांधी के वफादार बने रहे। 1980 में फिर चुनाव हुए और वीरभद्र सिंह एक बार फिर जीत कर लोकसभा पहुंच गए। 1982 में इंदिरा सरकार में उन्हेंं उद्योग राज्य मंत्री भी बना दिया गया।

1983 में हुई हिमाचल की राजनीति में आए

वर्ष 1983 में कांग्रेस सरकार पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा। लकड़ी घोटाले के आरोप के चलते तत्कालीन मुख्यमंत्री ठाकुर रामलाल को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा। पार्टी हाईकमान ने वीरभद्र सिंह को बतौर मुख्यमंत्री हिमाचल भेजा। इसके बाद उन्होंने प्रदेश कांग्रेस पार्टी को नई दिशा देना शुरू किया।  वीरभद्र सिंह हिमाचल में जिनका मतलब कांग्रेस है और कांग्रेस का पर्याय वीरभद्र। हिमाचल में हर पांच वर्ष में सत्ता परिवर्तन का रिवाज है। पर 1983 में सत्ता में आये वीरभद्र सिंह 1985 में हुए विधानसभा चुनाव के बाद एक बार फिर सत्ता में लौटे और दूसरी बार सीएम बने। इसके बाद से हिमाचल में कभी सरकार रिपीट नहीं हुई।

83 की उम्र में कांग्रेस को बनाना पड़ा मुख्यमंत्री का चेहरा

वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में वीरभद्र सिंह को पार्टी ने मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित किया।  83 वर्ष के वीरभद्र सिंह पार्टी के सीएम कैंडिडेट थे और उन्हेांने अकेले ही प्रचार की जिम्मेवारी संभाली। उन्होंने अपना विधानसभा क्षेत्र शिमला ग्रामीण अपने बेटे के लिए छोड़ा और खुद अर्की विस क्षेत्र से चुनाव लड़े और जीत हासिल की। इतनी उम्र में सीएम फेस बनाने को लेकर कांग्रेस आलाकमान के मन में कोई दुविधा नहीं थी क्योंकि पार्टी को पता था कि वीरभद्र सिंह ही ऐसे नेता है जो प्रदेश में कांग्रेस की नैया पार लगा सकते हैं। कांग्रेस चुनाव हार गई पर हिमाचल में वीरभद्र का जलवा बरकरार रहा।

1993 में फिर की वापसी

1990 के विधानसभा चुनाव में वीरभद्र सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा। खुद वीरभद्र सिंह भी जुब्बल कोटखाई से चुनाव हार गए थे। ऐसा लगने लगा था कि शायद ही वीरभद्र इसके बाद कभी सीएम बने। ऐसा इसलिए भी था क्योकि तब पंडित सुखराम और विद्या स्टोक्स का भी हिमाचल और कांग्रेस में ख़ासा दबदबा था। पर जो आसानी से हार मान ले वो वीरभद्र सिंह नहीं बनते। हार के बाद वीरभद्र ने संगठन में अपनी जड़े और मजबूत की और विपक्ष का सबसे बड़ा चेहरा बने रहे। शांता सरकार की गिरती लोकप्रियता को भी उन्होंने जमकर भुनाया। 1993 में शांता सरकार गिरने के बाद जब चुनाव हुए तो वीरभद्र सिंह तीसरी बार प्रदेश

के सीएम बने। 1998 में भी कांग्रेस प्रदेश में सबसे बड़ी पार्टी बनकर सामने आई लेकिन पंडित सुखराम के सहयोग से सरकार भाजपा की बनी। 2003 में फिर वीरभद्र सिंह की वापसी हुई और वे दिसंबर 2007 तक हिमाचल के मुख्यमंत्री रहे। 2007 में सत्ता से बहार होने के बाद वीरभद्र सिंह ने केंद्र का रुख किया और 2009 से 2012 तक केंद्र में मंत्री रहे।

2012 में कई नेताओं के मंसूबों पर फेरा पानी

2012 विधानसभा चुनाव के वक्त वीरभद्र सिंह की आयु 78 के पार थी। केंद्र में मंत्री होने के चलते शायद ही किसी को वीरभद्र के लौटने की उम्मीद रही हो। कांग्रेस में भी कई चाहवान सीएम की कुर्सी पर आखें गड़ाए बैठे थे। पर वीरभद्र को तो अभी दिल्ली से शिमला वापस लौटना था। चुनाव से पहले वीरभद्र ने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और हिमाचल लौट आये। कहते है कि वीरभद्र ने दिल्ली दरबार को स्पष्ट कर दिया था कि सीएम तो वे ही होंगे चाहे पार्टी कोई भी हो। तब भी हिमाचल में माइनस वीरभद्र कांग्रेस की ख़ास शख्सियत नहीं थी। सो आलाकमान झुका और वीरभद्र सिंह की लीडरशिप में चुनाव लड़ा गया। सत्ता परिवर्तन का सिलसिला भी बरकरार रहा और वीरभद्र सिंह रिकॉर्ड छठी बार सीएम बन गए।

श्री कृष्ण परिवार की 122 वीं पीढ़ी होने का दावा

वीरभद्र सिंह का परिवार बागवान श्री कृष्ण के वंशज होने का दावा करता है। दरअसल रामपुर बुशहर रियासत में एक स्थान आता है सराहन। राज परिवार का दावा है कि ये सराहन पहले सोनीपुर के नाम से जाना जाता था और भगवान श्री कृष्ण के पुत्र प्रद्युमन की रियासत का हिस्सा था। वीरभद्र सिंह का विवाह दो बार हुआ। 20 साल की उम्र में जुब्बल की राजकुमारी रतन कुमारी से उनकी पहली शादी हुई। किन्तु कुछ वर्षों बाद ही रतन कुमारी का देहांत हो गया। इसके बाद 1985 में उन्होंने प्रतिभा सिंह से शादी की। प्रतिभा सिंह भी मंडी से सांसद रह चुकी हैं। वीरभद्र और प्रतिभा के पुत्र विक्रमादित्य सिंह भी वर्तमान में शिमला ग्रामीण से विधायक हैं।

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