Notice: Function _load_textdomain_just_in_time was called incorrectly. Translation loading for the newsmatic domain was triggered too early. This is usually an indicator for some code in the plugin or theme running too early. Translations should be loaded at the init action or later. Please see Debugging in WordPress for more information. (This message was added in version 6.7.0.) in /home/imagequo/domains/shrinaradmedia.com/public_html/wp-includes/functions.php on line 6121
उत्तराखंड और केरल में कहर बनकर टूटा है,अरब सागर से चला पश्चिमी विक्षोभ. - श्रीनारद मीडिया

उत्तराखंड और केरल में कहर बनकर टूटा है,अरब सागर से चला पश्चिमी विक्षोभ.

उत्तराखंड और केरल में कहर बनकर टूटा है,अरब सागर से चला पश्चिमी विक्षोभ.

०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
priyranjan singh
IMG-20250312-WA0002
IMG-20250313-WA0003
previous arrow
next arrow
०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
priyranjan singh
IMG-20250312-WA0002
IMG-20250313-WA0003
previous arrow
next arrow

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

देश से मानसून की विदाई को भले ही एक सप्ताह से अधिक का वक्त बीत गया है, पर मौसम के तेवर अभी तल्ख बने हुए हैं। अरब सागर से चला पश्चिमी विक्षोभ उत्तराखंड और केरल में कहर बनकर टूटा है। बारिश से महज दो दिन में ही दोनों राज्यों में सैकड़ों व्यक्तियों की जान चली गई। जगह-जगह भूस्खलन से सड़कें बाधित हो गईं। नदियां खतरे के निशान के करीब हैं। जनजीवन बेपटरी हो गया है।

उत्तराखंड की बात करें तो अक्टूबर में यहां इतनी बारिश पहले कभी रिकार्ड नहीं की गई। मौसम विभाग के अनुसार यह आल टाइम रिकार्ड है। एक अक्टूबर से अब तक उत्तराखंड में औसतन 400 मिमी से अधिक बारिश हो चुकी है, जबकि इससे पहले वर्ष 2009 में यह आंकड़ा 170 मिमी के आसपास था। आमतौर पर अक्टूबर में प्रदेश में करीब 30 मिमी बारिश होती है।

jagran

विज्ञानियों के अनुसार उत्तराखंड में इस बार परिस्थितियां कुछ वैसी ही बनीं, जैसी वर्ष 2013 में बनी थीं। जाहिर है इसका प्रभाव और अधिक भयावह हो सकता था, लेकिन मौसम विभाग की चेतावनी के बाद सरकार समय रहते सक्रिय हो गई। मौसम विभाग ने पर्यटकों और यात्रियों के साथ ही तटवर्ती क्षेत्रों में रहने वालों के लिए एडवाइजरी जारी कर दी। इससे पर्वतीय क्षेत्रों में यात्र करने वाले लोग जो जहां थे, वहीं ठहर गए।

स्थिति और बेहतर होती यदि सरकार और शासन की भांति तहसील और ब्लाक स्तर पर भी तत्परता दिखाई जाती। बात यहीं खत्म नहीं होती, देश में इस संकट से निपटने के लिए तात्कालिक कदमों के साथ ही दीर्घकालिक उपायों पर भी ध्यान देने की जरूरत है। उत्तराखंड जैसे प्रदेश का तो आपदा के साथ चोली-दामन जैसा रिश्ता है। बात चाहे मानसून सीजन की हो अथवा सर्दियों की, कुदरत कब कुपित हो जाए कहा नहीं जा सकता। पर्वतीय क्षेत्रों में भूस्खलन के मुहाने पर चिन्हित गांवों का भी जल्द से जल्द विस्थापन किया जाना चाहिए। फिर चाहे टिहरी झील के किनारे के इलाके हों या मलारी में रैणी के पास जुग्जू गांव, जहां भूस्खलन के डर से ग्रामीणों को गुफाओं में शरण लेनी पड़ती है।

jagran

देखा जाए तो उत्तराखंड में बारिश के रूप में आई इस तबाही की वजह विकास के नाम पर पर्यावरण और पहाड़ों से बड़े पैमाने पर हो रही छेड़छाड़ का नतीजा भी है। इसके चलते प्रदेश को बेमौसम बारिश और भूस्खलन का शिकार होना पड़ता है। लगातार भूस्खलन और मलबा जमा होने के चलते उत्तराखंड में रास्तों के बंद होने की कई खबरें इस बरसाती मौसम में आ चुकी हैं। चमोली जिले में चीन बार्डर के साथ जुड़ने वाला महत्वपूर्ण मार्ग दो सप्ताह से बंद है।

पर्वतीय राज्यों में बेहिसाब पर्यटन ने प्रकृति का हिसाब गड़बड़ा दिया है। वहीं गांव-कस्बों में विकास के नाम पर आए वाहनों के लिए चौड़ी सड़कों के निर्माण के लिए भी पहाड़ को ही निशाना बनाया जा रहा है। हिमालय भारतीय उपमहाद्वीप के जल का मुख्य आधार है। यदि नीति आयोग के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा तीन साल पहले तैयार जल संरक्षण पर रिपोर्ट पर भरोसा करें तो हिमालय से निकलने वाली 60 फीसद जल धाराओं में दिनों-दिन पानी की मात्र कम हो रही है।

jagran

ग्लोबल वार्मिग या धरती का गरम होना, कार्बन उत्सर्जन, जलवायु परिवर्तन और इसके दुष्परिणामस्वरूप धरती के शीतलीकरण का काम कर रहे ग्लेशियरों पर आ रहे भयंकर संकट और उसके कारण समूची धरती के अस्तित्व के खतरे की बातें अब महज कुछ पर्यावरण-विशेषज्ञों तक सीमित नहीं रह गई हैं। धीरे से कुछ ऐसे दावों के दूसरे पहलू भी सामने आने लगे हैं कि जल्द ही हिमालय के ग्लेशियर पिघल जाएंगे, जिसके चलते नदियों में पानी बढ़ेगा और उसके परिणामस्वरूप जहां एक तरफ कई नगर-गांव जलमग्न हो जाएंगे, वहीं धरती के बढ़ते तापमान को थामने वाली छतरी के नष्ट होने से भयानक सूखा, बाढ़ और गरमी पड़ेगी। जाहिर है ऐसे हालात में मानव-जीवन पर भी संकट होगा।

jagran

दुनिया के सबसे युवा और जिंदा पहाड़ कहलाने वाले हिमालय की पर्यावरणीय छेड़छाड़ से उपजी वर्ष 2013 की केदारनाथ त्रसदी को भुलाकर उसकी हरियाली उजाड़ने की कई परियोजनाएं उत्तराखंड राज्य के भविष्य के लिए खतरा बनी हुई हैं। नवंबर 2019 में राज्य की कैबिनेट से स्वीकृत नियमों के मुताबिक अब कम से कम दस हेक्टेयर में फैली हरियाली को ही जंगल कहा जाएगा। वहां न्यूनतम पेड़ों की सघनता घनत्व 60 प्रतिशत से कम नहीं होनी चाहिए। जाहिर है जंगल की परिभाषा में बदलाव का उद्देश्य ऐसे कई इलाकांे को जंगल की श्रेणी से हटाना है, जो कि आधुनिक विकास की राह में रोड़े बने हुए हैं। उत्तराखंड में बन रही पक्की सड़कों के लिए हजारों पेड़ काट डाले गए हैं।

यह बात स्वीकार करनी होगी कि ग्लेशियरों के करीब बन रहीं जल विद्युत परियोजनाओं के लिए हो रहे धमाकों एवं तोड़फोड़ से शांत, धीर-गंभीर रहने वाले जीवित हिम पर्वत नाखुश हैं। हिमालय भू विज्ञान संस्थान का एक अध्ययन बताता है कि गंगा नदी का मुख्य स्नेत गंगोत्री हिमखंड भी औसतन 10 मीटर के बजाय 22 मीटर सालाना की गति से पीछे खिसका है। सूखती जल धाराओं के मूल में ग्लेशियर क्षेत्र के नैसर्गिक स्वरूप में हो रही तोड़फोड ही है।

jagran

सनद रहे कि हिमालय न केवल हर साल बढ़ रहा है, बल्कि इसमें भूगर्भीय हलचल भी होती रहती है। यहां पेड़ भूमि को बांधकर रखने में बड़ी भूमिका निभाते हैं। वे कटाव एवं पहाड़ को ढहने से रोकने का एकमात्र जरिया हैं। जानना जरूरी है कि हिमालयी भूकंपीय क्षेत्र में भारतीय प्लेट का यूरेशियन प्लेट के साथ टकराव होता है। इससे प्लेट बाउंड्री पर तनाव ऊर्जा संग्रहित हो जाती है, जिससे चट्टानों का विरुपण होता है। यह ऊर्जा भूकंपों के रूप में कमजोर जोनों एवं फाल्टों के जरिये सामने आती है।

जब पहाड़ पर तोड़फोड़ या धमाके होते हैं या जब उसके प्राकृतिक स्वरूप से छेड़छाड़ होती है तो दिल्ली तक भूकंप के खतरे तो बढ़ते ही हैं, यमुना में कम पानी का संकट भी खड़ा होता है। अधिक सुरंग या अविरल धारा को रोकने से पहाड़ अपने नैसर्गिक स्वरूप में रह नहीं पाते हैं। इसके दूरगामी परिणाम विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं के रूप में सामने आ रहे हैं। जान लें पहाड़ को क्रंक्रीट का नहीं अपने नैसर्गिक स्वरूप का विकास चाहिए। सीमेंट की संरचनाएं पहाड़ के जल-प्रवाह और मिट्टी क्षरण को रोकती नहीं, बल्कि उसको बढ़ावा देती हैं।

Leave a Reply

error: Content is protected !!