मेरे जिंदगी में आशा की ज्योत प्रज्वलित कर रहा योग!
वरना, भरोसे और नियमितता के अभाव में योग से बनी दूरी ने जिंदगी को तो तबाह ही कर डाला था……
अंतराष्ट्रीय योग दिवस पर दिल की बात दिल से……
✍️गणेश दत्त पाठक, सेंट्रल डेस्क, श्रीनारद मीडिया :
योग के बारे में सुना था, पढ़ा था, लिखा था, बोला था। लेकिन योग की माया को समझ नहीं पाया था। योग के सैद्धांतिक कलेवर से पुराना परिचय रहा लेकिन योग जब जिंदगी में आया, अनुभव में आया तो अभिभूत कर गया। मेरे जिंदगी के निराश पन्नों में आशा की ज्योत प्रज्वलित कर गया।
2015 में मुझे ब्रेन ट्यूमर हो गया। बेंगलुरु के निम्हांस अस्पताल में शल्य चिकित्सा के बाद डॉक्टरों ने विश्राम का सलाह दिया। तकरीबन डेढ़ वर्षों के विश्राम की अवधि में शरीर के व्याधियों संबंधी कई मानदंड दरकने लगे। अवसाद तनाव जैसी कई गुत्थियां भी उलझने लगी। लगा जैसे बस शरीर शरीर ही रह गया।
लेकिन एक दिन घुटनों में अचानक उठे दर्द ने बेहाल कर दिया। उस दिन यू ट्यूब देखते हुए कुछ घुटनों के दर्द संबंधित योगासनों पर नजर गई। वैसे योग के सैद्धांतिक आयाम से परिचय था लेकिन उसके आरोग्यतामक पहलुओं से मैं अंजान था। फिर मैंने घुटनों के दर्द के लिए तीन चार दिन के लिए योगासन पर भरोसा जताया। कमाल का असर दिखा घुटनों का दर्द गायब हो गया। योग पर विश्वास जमा।
फिर शुरू हुई नियमित योग साधना। उम्मीद तो थी कि दस पंद्रह दिन तक उत्साह कायम रहेगा। फिर योग से दूरी बन ही जाएगी। एक तरफ मोबाइल पर बजती पूज्य राजन जी के भजन, प्रभातबेला और योगसाधना। यह तो मेरी जीवनशैली ही बन गई। प्रभातबेला में स्वतः नींद का खुल जाना। स्वतः ही नियमित समय पर योग साधना का शुरू हो जाना। सब कुछ अदभुत था।
दस दिन गुजरे, पंद्रह दिन गुजरे, समय गुजरता रहा। परंतु योग साधना का क्रम अनवरत जारी रहा। एक दिन मुहल्ले के एक सज्जन ने टोका, बोला कि आप दुबले लग रहे हैं! घर पर सुनने को मिला, अब कम गुस्सा करने लगे हैं। ये संकेत उत्साहवर्धक थे। पैथालॉजी टेस्ट के परिणाम भी सुखद संकेत दे रहे थे। तब बात आत्मावलोकन की आई तो स्वयं विदित हुआ कि तनाव अब कम रहने लगा है। परिस्थितियों से सामंजस्य में अब परेशानी नहीं हो रही थी। ये सभी संकेत योग और प्राणायाम के महत्व को इंगित कर रहे थे।
ये तथ्य योग के सैद्धांतिक बातों से दूर अनुभव की कसौटी पर प्रस्फुटित और प्रकट हो रहे थे। डावाडोल जिंदगी को एक खुशनुमा आधार मिल गया था। पर आश्चर्य तो इस बात का रहा कि योग को जानने, समझने के बावजूद इतनी देर से योग से मित्रता कैसे हुई? शायद बात भरोसे, नियमिततता के अभाव की थी!
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