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22 की उम्र में संन्यासी बने योगी आदित्यनाथ- 26 में लोकसभा सदस्य.

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एक संन्यासी के राजधर्म की जीत.

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

संत समाज को वैचारिक मार्गदर्शन के लिए जाना जाता है लेकिन योगी आदित्यनाथ ने इस मानक को नए सिरे से गढ़ा है। वैचारिक मार्गदर्शन को व्यवहार के धरातल पर न केवल उतारा है बल्कि उसे साबित भी किया है। धर्म और राजनीति दोनों को लोककल्याण का ध्येय बनाया है। 22 साल की उम्र में संत बने, 26 में सबसे कम उम्र के लोकसभा सदस्य। पांच बार सांसद रहने के बार मुख्यमंत्री का दायित्व मिला तो उसे कुशल नेतृत्वकर्ता के रूप में विस्तारित किया।

पहली बार विधायकी लड़े और बन गया नया रिकार्ड : अब जब दोबारा मुख्यमंत्री बनने के लिए जब विधायक बनने की बारी आई तो उसमें भी अजेय रहे। उन्होंने उस शहर विधानसभा सीट से एक लाख से अधिक मतों से जीत हासिल की, जिसमें बीते दिन दशक से भी अधिक समय से उन्होंने न केवल भगवा लहराने की जिम्मेदारी संभाल रखी है बल्कि इसे भगवा गढ़ बना दिया है। पहली बार इस सीट पर भाजपा ने एक लाख से अधिक अंतर से जीत दर्ज की।

दूर दूर तक नहीं फटक पाया कोई प्रतिद्वंदी : इस बार गोरखपुर शहर सीट पर 34 राउंड में हुई मतगणना के दौरान आदित्यनाथ को 162961 वोट मिले। उन्होंने अपनी निकटतम प्रतिद्वंद्वी सपा की सुभावती शुक्ला को  102399 वोट से हराया। सुभावती को 60562 वोट मिले। इस सीट पर बसपा प्रत्याशी शमशुदीन को 7833 जबकि कांग्रेस की चेतना पांडेय को 2731 वोट मिले। आजाद समाज पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर को भी महज 7454 वोटों से संतोष करना पड़ा। आम आदमी पार्टी के प्रत्याशी को महज 810 वोट मिले।

ऐसा रहा सियासी सफर : योगी को राजनीतिक दायित्व गोरक्षपीठ से विरासत में मिला। उनके दादागुरु महंत दिग्विजयनाथ गोरखपुर संसदीय क्षेत्र से एक बार तो गुरु महंत अवेद्यनाथ पांच बार विधायक और चार बार सांसद रहे। 1996 में गोरखपुर लोकसभा से चुनाव जीतने के बाद ही महंत अवेद्यनाथ ने घोषणा कर दी कि गोरक्षपीठ के साथ उनका राजनीति उत्तराधिकार भी योगी ही संभालेंगे।

इसके बाद योगी 1998 के लोकसभा चुनाव में गोरखपुर से चुनाव मैदान में उतरे और जीत हासिल कर बारहवीं लोकसभा में मात्र 26 की उम्र में सांसद बने। जीत का यह सिलसिला 2014 के लोकसभा चुनाव तक लगातार चला। 2017 में प्रदेश में जब भाजपा को प्रचंड बहुमत मिला तो भाजपा नेतृत्व ने उन्हें मुख्यमंत्री बनाने का निर्णय लिया।

नोएडा जाने का मिथक तोड़ा : 19 मार्च 2017 को प्रदेश के मुख्यमंत्री की कमान संभाली। बतौर मुख्यमंत्री उन्होंने तमाम उपलब्धियों के बीच न केवल शानदार कार्यकाल पूरा किया है बल्कि सार्वजनिक जीवन में बेदाग छवि को भी बरकरार रखा। पांच साल के दौरान उनकी खुद की जीवनचर्या तो संन्यासी की तरह ही रही लेकिन बतौर राजनेता उन्होंने देश भर के लिए मुख्यमंत्रियों के लिए नजीर बने रहे।

योगी प्रदेश के अबतक के इकलौते मुख्यमंत्री रहे हैं, जिन्होंने प्रदेश के हर जिले का कई बार दौरा करने के साथ नोएडा जाने के मिथक को भी तोड़ा है। पहले मुख्यमंत्री इस मिथक के भय से नोएडा नहीं जाते थे कि वहां जाने से सीएम की कुर्सी चली जाती है। योगी ने आधा दर्जन से अधिक बार नोएडा की यात्रा कर यह साबित किया है कि एक संत का ध्येय सिर्फ सत्ता बचाए रखना नहीं बल्कि लोक कल्याण होता है।

नहीं चल सका विपक्ष का कोई दांव : योगी आदित्यनाथ की घेराबंदी के लिए सपा ने भाजपा के पूर्व क्षेत्रीय अध्यक्ष स्व. उपेन्द्र दत्त शुक्ल की पत्नी सुभावती शुक्ला पर दांव खेला था जबकि बसपा ने परंपरागत वोटरों को सहेजने और अल्पसंख्यक मतों को एकजुट करने की जिम्मेदारी ख्वाजा शमसुद्दीन को सौंपी थी। कांग्रेस ने चेतना पांडेय को मैदान में उतारकर आधी आबादी को साधने की कोशिश की थी।

आजाद समाज पार्टी के प्रमुख चंद्रशेखर भी योगी के खिलाफ ताल ठोकने गोरखपुर आए थे, लेकिन भाजपा के इस गढ़ में विपक्ष का कोई भी दांव नहीं चला। मतों की गिनती जब शुरू हुई तो यह तथ्य एक बार फिर साबित हो गया कि गोरखपुर के भगवा गढ़ को भेदना उतना आसान नहीं है, जितना विपक्ष ने सोच रखा था।

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