‘सुपर संसद’ के रूप में आपको स्वीकृति नहीं दी जा सकती है,क्यों?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
भारतीय लोकतंत्र में विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका, खबरपालिका और समाजपालिका में पारस्परिक टकराव कोई नई बात नहीं है, लेकिन यह जनहित में होना और दिखाई देना चाहिए। लेकिन अब जिस तरह से अपनी नाकामियों और चरित्रहीनता को छिपाने के लिए ये लोग संवैधानिक नियमों का दुरूपयोग कर रहे हैं, वह किसी वैचारिक त्रासदी से कम नहीं है। देश के प्रबुद्ध लोगों को इन संवैधानिक कमियों को पहचानना चाहिए और उसपर अविलंब लीगल सर्जिकल स्ट्राइक करने का दबाव भारतीय संसद और सुप्रीम कोर्ट दोनों पर बनाना चाहिए।
इस बात में कोई दो राय नहीं कि राष्ट्रीय संसाधनों के न्यायपूर्ण बंटवारे, विधि-व्यवस्था को बनाए रखने और उसे तोड़ने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने और सबको समान रूप से गुणवत्तापूर्ण जन सुविधाएं मुहैय्या करवाने में हमारी संसद और सर्वोच्च न्यायालय दोनों असफल साबित हुए हैं और इनके ऊलजलूल तर्कों से देश इस्लामिक चरमपंथियों के नापाक मंसूबों को साकार करने की दिशा में आगे बढ़ता हुआ प्रतीत हो रहा है!
राष्ट्रपति शासन, आरक्षण विवाद, भाषा विवाद, धर्मनिरपेक्षता आदि सुलगते सवालों पर राष्ट्र का सही मार्गदर्शन करने में भी ये संस्थाएं विफल प्रतीत हो रही हैं। ऐसे में इनकी नकेल कसने के लिए भारतीय संविधान कभी कारगर साबित हो ही नहीं सकता, क्योंकि यह खुद साम्राज्यवादी मानसिकता वाले विरोधाभासों से भरा पड़ा है।
ऐसे में देश के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ की यह टिप्पणी वाजिब है कि न्यायपालिका द्वारा राष्ट्रपति के निर्णय लेने के लिए समयसीमा तय करने, और ‘सुपर संसद’ के रूप में काम करने की इजाजत नहीं दी जा सकती है, इसलिए उन्होंने इस विषय को लेकर महत्वपूर्ण सवाल उठाए हैं, जो उनके प्रबुद्ध होने का परिचायक है। देश के विश्वविद्यालयों और अन्य पेशेवर संगठनों को इन पर गौर फरमाते हुए आम राय कायम करने की जरूरत है। उन्होंने ठीक ही कहा है कि सुप्रीम कोर्ट लोकतांत्रिक ताकतों पर ‘परमाणु मिसाइल’ नहीं दाग सकता!
उपराष्ट्रपति धनखड़ ने आरोप लगाया है कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद-142 लोकतांत्रिक ताकतों के खिलाफ एक परमाणु मिसाइल बन गया है जो न्यायपालिका के लिए चौबीसों घंटे उपलब्ध है। बता दें कि संविधान का अनुच्छेद 142 सुप्रीम कोर्ट को अपने समक्ष किसी भी मामले में ‘पूर्ण न्याय’ सुनिश्चित करने के लिए आदेश जारी करने की शक्ति देता है। उन्होंने यह भी सवाल उठाया है और कहा है कि, ‘हमारे पास ऐसे जज हैं जो कानून बनाएंगे, जो कार्यपालिका के काम करेंगे और उनकी कोई जवाबदेही नहीं होगी, क्योंकि देश का कानून उन पर लागू नहीं होता है।’
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने 17 अप्रैल 2025 दिन गुरुवार को कहा कि हाल ही में जूडिशरी के एक फैसले में राष्ट्रपति को निर्देश दिये जाने की पनपी नई प्रवृत्ति पर ठीक ही सवाल किया कि हम किस दिशा में जा रहे है? हमने इस दिन के लिए लोकतंत्र की कभी उम्मीद नहीं की थी। राष्ट्रपति को समयबद्ध तरीके से निर्णय लेने के लिए कहा जाता है। धनखड़ ने यह टिप्पणी राज्यसभा के ट्रेनीज को संबोधित करते हुए की।
उन्होंने ठीक ही कहा कि हम ऐसी स्थिति नहीं बना सकते जहां आप भारत के राष्ट्रपति को निर्देश दें। उन्होंने कहा कि यह निर्देश किस आधार पर दिए जा रहे हैं? संविधान के तहत आपके पास एकमात्र अधिकार अनुच्छेद 145(3) के तहत संविधान की व्याख्या करना है। उन्होंने शक्तियों के पृथक्करण पर कहा कि जब सरकार जनता द्वारा चुनी जाती है, तो सरकार संसद के प्रति तथा चुनावों में जनता के प्रति जवाबदेह होती है। उन्होंने कहा कि समय आ गया है जब विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका फले-फूलें। किसी एक के द्वारा दूसरे के क्षेत्र में हस्तक्षेप चुनौती पैदा करता है, जो अच्छी बात नहीं है।
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने हाई कोर्ट के जज यशवंत वर्मा के घर से बड़े पैमाने पर नकदी की बरामदगी से जुड़े मामले में एफआईआर दर्ज न किए जाने पर सवाल उठाया है। उन्होंने ठीक ही कहा कि अगर यह घटना आम आदमी के घर पर हुई होती, तो मामले में रॉकेट की रफ्तार से एफआईआर दर्ज की जाती। जबकि न्यायपालिका की स्वतंत्र जांच या पूछताछ के खिलाफ किसी तरह का सुरक्षा कवच नहीं है। उन्होंने ठीक ही कहा है कि किसी संस्था या व्यक्ति को पतन की ओर धकेलने का सबसे पुख्ता तरीका उसे जांच से सुरक्षा की पूर्ण गारंटी प्रदान करना है।
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने दिल्ली हाइकोर्ट के एक जज के घर मिले कथित कैश की ओर इशारा करते हुए उस पर लीपापोती की नाजायज प्रवृत्ति पर भी सवाल उठाए। धनखड़ ने दो टूक शब्दों में कहा कि हाई कोर्ट के एक जज के घर से मिले कैश से जुड़े मामले में एफआईआर न होना आमलोगों के सवालों के घेरे में है। इसलिए सवाल उठाया कि क्या ‘कानून से परे एक श्रेणी’ को अभियोजन से छूट है।
उन्होंने ठीक ही कहा कि जूडिशरी की स्वतंत्र जांच या पूछताछ के खिलाफ किसी तरह का ‘सुरक्षा कवच’ नहीं है। एक पत्रकार के रूप मेरी भी व्यक्तिगत राय है कि न्यायिक भ्रष्टाचार की जांच के लिए न्यायिक पुलिस और पत्रकारिता के भ्रष्टाचार की जांच के लिए मीडिया पुलिस का अविलंब गठन किया जाए। प्रशासनिक व्यवस्था के किसी भी क्षेत्र को स्वनियमन बनाने और लागू करने की छूट नहीं दी जाए।
इसलिए यहां पर सवाल उठता है कि आखिर न्यायपालिका को ‘सुपर संसद’ के रूप में काम करने की इजाजत किसने दी? मेरा स्पष्ट मानना है कि देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से लेकर मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्राप्त भारी जनसमर्थन का रणनीतिक दुरूपयोग किया, जिससे न्यायपालिका को विधायिका को दुरुस्त करने का मौका मिल गया, जो अनुचित नहीं है।
किसी भी राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, उपप्रधानमंत्री, राज्यपाल, उपराज्यपाल, मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री आदि को वोट बैंक के लिहाज से जनविरोधी या राष्ट्र विरोधी फैसले लिए जाने की इजाजत नहीं दी जा सकती है। ऐसे में मजबूत व स्वतंत्र न्यायपालिका जरूरी है। लेकिन भ्रष्ट न्यायपालिका कतई नहीं! देश में फैला न्यायिक भ्रष्टाचार हमारी विधायिका की लगभग 8 दशकों की बड़ी लापरवाही है। वहीं, प्रशासनिक भ्रष्टाचार में भी विधायिका का परोक्ष रूप से हिस्सेदार बन जाने की प्रवृत्ति भी अस्वीकार्य है। सारे टकराव की वजह भी यही भ्रष्ट और अनैतिक आचरण है।
मेरा स्पष्ट मानना है कि भारतीय संविधान से नौंवी अनुसूची को हटाकर उसमें शामिल किए गए सभी विषयों की न्यायिक समीक्षा होनी चाहिए, ताकि राजनीतिक मनमानी रूके। वहीं, भारतीय प्रशासन को भी जनहित के प्रति जिम्मेदार बनाए जाने की जरूरत है, अन्यथा उनकी लापरवाहियों के लिए स्पष्ट सजा व जुर्माना का प्रावधान हो, ताकि वो पॉलिटिकल एजेंट की तरह काम करने से बाज आएं।
कहना न होगा कि देश में जारी राजनीतिक व प्रशासनिक पक्षपात के चलते ही देश में न्यायपालिका को सब पर भारी पड़ने का मौका मिल गया। विभिन राज्यों में राष्ट्रपति शासन का दुरूपयोग, आरक्षण से जुड़े अभिजात्य वर्गों के हितों को अनैतिक संरक्षण, राष्ट्रपति दया याचिका का राजनीतिक प्रयोग तो महज बानगी हैं, जबकि ऐसे कई उदाहरण हैं जहां संसद ने बहुमत से अल्पमत को कुचला है और देशवासी पददलित हुए हैं। हालांकि, संविधान की नौंवीं अनुसूची के चलते वह भी कई विवादास्पद विषयों पर असहाय नजर आई।
इसलिए वक्त का तकाजा है कि सबके व्यक्तिगत विशेषाधिकारों को खत्म कर आम आदमी के प्रति उन्हें जिम्मेदार बनाया जाये। यह काम लोकतांत्रिक दबाव समूह ही कर सकते हैं, क्योंकि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका अपने पेशेवर विशेषाधिकार को आसानी से छोड़ेंगे, ऐसा मुझे नहीं लगता!