युवा विवेकानन्द से सबल, सुदृढ़, सुंदर और भव्य स्वरूप का आचमन सीख सकते है!
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
11 सितंबर 1893। इसी दिन शिकागो में आयोजित धर्म महासभा में सनातन हिन्दू धर्म दर्शन से विश्व का परिचय कराने के बाद स्वामी विवेकानंद के आत्मतेज के आलोक से दुनिया परिचित हुई। यह सर्वविदित है। लेकिन उस समय वैश्विक मंचों पर भारतीय मनीषियों का मान कितना था, इसका वर्णन संघ के तत्कालीन सरसंघचालक पूजनीय “श्री गुरुजी” के 11 जनवरी 1969 को विवेकानन्द आश्रम,रायपुर में दिए व्याख्यान में मिलता है।
एक विश्वविद्यालय के निमंत्रण पर भाषण के लिए विश्वकवि कहलानेवाले रवीन्द्रनाथ ठाकुर जापान गए। पर खेद की बात, न तो वहां के छात्र उनका भाषण सुनने आए और न ही अध्यापक। बस निमंत्रण देनेवाले पांच – दस अधिकारी ही सभास्थल में पहुंचे थे। निमंत्रकों को लगा यह तो इतने बड़े अतिथि का अपमान है,हमें चाहिए कि अनेक लोगों को बुलाकर यहां उपस्थित करें।
अतः दूसरे दिन वे अनेक लोगों के घर पर गए और प्रत्येक से मिलकर कहा – भाई, इतना बड़ा मनुष्य आया है, हमें उसके भाषण सुनने जाना चाहिए। उनको जवाब मिला – ” We are not going to listen to the philosophy of the defeated race ” – ” हम पराभूत जाति के लोगों का तत्वज्ञान सुनने नहीं जाएंगे! ” तो, विदेशों में भारत की तब ऐसी स्थिति थी।
परन्तु ईश्वर की अगाध लीला को भला कौन समझ सकता है! किसी के मन में आया कि सारे विश्व के भिन्न भिन्न धर्मों का सम्मेलन किया जाय। उस धर्म सम्मेलन को मानो ईश्वर ने ही बुलाया था। किसी को निमित्त बनाकर आगे बढ़ा दिया,पर मानो ईश्वर ने ही यह योजना की । किसलिए ? इसलिए की यह जो तेजपुंज हमारे यहां उत्पन्न हुआ था और जिसे भगवान रामकृष्ण ने जगत के संपूर्ण अंधकार को नष्ट करने के लिए प्रेरित किया था, वह वहां जाकर मानो एक भीषण बम के समान गर्जन करते हुए फट जाय, जिससे कि अज्ञान के सारे पर्दे नष्ट हो जाएं और सन्मार्ग का पथ प्रशस्त हो जाय।
और विचित्रता तो देखिए,सबको निमंत्रण मिला था,पर स्वामी जी को कोई निमंत्रण नहीं था। फिर भी गुरु के संकेत पर वे अमेरिका गए और वहां उन्हें कैसी कैसी परिस्थितियों से गुजरना पड़ा,यह हमें मालूम ही है। उनका जीवन चरित्र पढ़ने पर पता चलता है कि जिसे निमंत्रण नहीं,प्रतिनिधियों की सूची में जिसका नाम नहीं,ऐसे व्यक्ति को भी प्रवेश मिल जाता है! यह ईश्वर की योजना नहीं तो और क्या था ? और प्रवेश देने की व्यवस्था करते समय एक श्रेष्ठ विद्वान तो यहां तक कह बैठते हैं कि ” अरे! इनसे परिचय पत्र मांगना सूर्य को यह पूछने के समान है कि तुम्हारा प्रकाश देने का अधिकार क्या है ! ”
उनके थोड़े से संपर्क से ही कुछ श्रेष्ठ व्यक्तियों के मन में उनकी महत्ता का ऐसा बोध हो गया था। स्वामी जी को धर्म सम्मेलन में प्रवेश मिला। प्रथम दिन के एक छोटे भाषण से ही उन्होंने पूरे विश्व की श्रेष्ठ पुरुषों की सभा जीत ली। वे वहां के अनभिषिक्त राजा बन गए। उनका एक एक शब्द सुनने के लिए सहस्त्रों लोग आतुर हुए रहते थे। विरोधी खड़े हुए कि निष्प्रभ हो गए।
वे जिधर भी गए,इस प्रकार गए जैसे एक चक्रवर्ती सम्राट अपनी विजयवाहिनी लेकर अप्रतिहत गति से सभी ओर जाता है। दुनिया के विविध राष्ट्रों में उन्होंने हिंदुत्व की नवीन जागृति उत्पन्न की । उसके बाद भी कई बार लोगों ने ऐसे सम्मेलन किए पर वह तेज किसी सम्मेलन में आज तक न आ सका।
यह किसी भारतीय नरेन की वक्तृत्व शैली का चमत्कार मात्र नहीं था। रामकृष्ण परमहंस के शिष्य विवेकानन्द के जरिए दुनिया को भारत नियति और सनातन गुरु – शिष्य परंपरा के पीछे के अलौकिक दर्शन को भी प्रकट करना था। तभी तो जब नरेन गुरु की संगति के संपर्क में आए थे तो उनकी प्रतिभा फौरन पहचान कर उन्होंने कहा था, ” जिस एक शक्ति के उत्कर्ष के कारण केशव ( ब्रह्म समाज के प्रसिद्ध नेता केशवचंद्र सेन ) जगद्विख्यात हुआ है, वैसी अठारह शक्तियों का नरेंद्र में पूर्ण उत्कर्ष है। ”
आज विवेकानन्द जयंती के पुण्य स्मरण पर वर्तमान युवा उनसे सबल, सुदृढ़, सुंदर और भव्य स्वरूप का आचमन सीख सकते हैं। जिनके दृष्टि में बिजली का असर था और मुख मंडल पर आत्मतेज का आलोक। विश्वविख्यात और विश्ववंद्य होते हुए भी स्वभाव अति सरल और व्यवहार विनम्र। पांडित्य अगाध और असीम।
अंग्रेजी के पूर्ण पंडित और अपने समय के श्रेष्ठ वक्ता के साथ ही आप संस्कृत साहित्य और दर्शन के पारगामी विद्वान के साथ जर्मन, हिब्रू, ग्रीक, फ्रेंच, बांग्ला, हिन्दी आदि भाषाओं पर पूर्ण अधिकार रखते थे। प्रकृति प्रेमी महर्षि के साथ आप सच्चे राष्ट्रभक्त भी थे, जिसने देश पर अपने आपको मिटा दिया।
12 जनवरी 1863 को जन्मे स्वामी विवेकानंद जी ने भारतीय अध्यात्म की जिन गहराइयों में उतरकर दुनिया को अपने व्यक्तित्व से चमत्कृत कर दिया था उनमें आधुनिक युवाओं के पाने के लिए असीम भंडार है। पर क्या वर्तमान पीढ़ी की उत्कंठा नरेन्द्र सदृश्य है, इस पर बहुत कुछ निर्भर है !
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