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LetsInspireBihar अभियान के अंतर्गत नालन्दा में हुआ युवा संवाद.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

LetsInspireBihar अभियान के अंतर्गत युवा संवाद हेतु रविवार, 17 अप्रैल को नालंदा में उपस्थित था । इसके पूर्व शनिवार को सुपौल में था जहाँ युवा संवाद के पश्चात लौटने के क्रम में रात्रि विश्राम के लिए अपने गृह जिला बेगूसराय में रूक गया था । बेगूसराय में भोजन के पश्चात जब नालंदा के उदय, इतिहास तथा विध्वंस के कारणों पर चिंतन करने लगा तब मन कहने लगा कि नालंदा का पतन अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण था और यह कि किसी भी संस्कृति में #शस्त्र एवं #शास्त्र का पारस्परिक संबध अत्यंत महत्वपूर्ण है ।

नालंदा के भग्नावशेषों में यह संदेश अवश्य समाहित है कि भले ही शास्त्रीय ज्ञान अपने चरम उत्कर्ष पर क्यों न हो, यदि शस्त्रों के सामर्थ्य में कमी आती है तो उत्कृष्ट शास्त्र भी नष्ट हो जाते हैं । मन जब भारत में साम्प्रदायिक तनाव तथा हिंसा के इतिहास पर मंथन करने लगा, तब यह स्मरण आने लगा कि हमारा राष्ट्र प्राचीनतम काल से ही संपूर्ण विश्व में सर्व धर्म समभाव के प्रतीक रूप में स्थापित रहा था ।

“एकं सत्यं विप्रा बहुधा वदन्ति” की हमारी मूल सांस्कृतिक अवधारणा के कारण ही मध्यकाल में विदेशी आक्रांताओं के काल में साम्प्रदायिक तनाव तथा असहिष्णुता की पराकाष्ठा जैसी भीषण चुनौतियों की अनुभूति के पश्चात भी स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात धर्म निरपेक्षता के ही मूल आधार पर राष्ट्र पुनर्स्थापित हुआ । मन कहने लगा कि राष्ट्र के सुदृढ़ीकरण हेतु इस अवधारणा की रक्षा करना हर भारतीय का संवैधानिक ही नहीं अपितु सांस्कृतिक धर्म भी है ।

चिंतन के इसी क्रम में अचानक उसी दिन दिल्ली के जहाँगीरपुरी में हनुमान जन्मोत्सव के अवसर पर आयोजित शोभायात्रा में उपद्रव तथा साम्प्रदायिक तनाव की सूचना मिली जिससे मन द्रवित हो उठा । मन घटना की भर्त्सना कर कहने लगा कि स्वतंत्र तथा धर्म निरपेक्ष भारत में ऐसी घटना कदापि स्वीकार्य नहीं हो सकती तथा यह कि सर्व धर्म समभाव का सुदृढ़ीकरण आवश्यक है चूंकि कभी साम्प्रदायिक असहिष्णुता के कारण ही नालंदा का भी ध्वंस हुआ था और कालांतर में राष्ट्र को विभाजन तक स्वीकार करना पड़ गया था । अपनी संवेदनाओं को ट्विटर के माध्यम से साझा कर चिंतन के क्रम में ही धीरे-धीरे सुसुप्तावस्था में लीन हो गया ।

प्रातः काल जब बेगूसराय से नालंदा की ओर जाने लगा, तब मन नालंदा के संदेश पर पुनः मंथन करने लगा । नालंदा पहुंचकर संबोधन के क्रम में मैंने सर्वप्रथम नालंदा जिसका अर्थ रूपी तात्पर्य संस्कृत के दृष्टिकोण से “ना + अलं + दा” के संयोग से संबद्ध वैसे क्षेत्र से है जहाँ “दा” अर्थात “दान” का कभी अंत न हो, को नमन किया और बताया कि इस ऐतिहासिक पावन भूमि ने मुझे भी बहुत कुछ दिया था और प्रथम साक्षात्कार में ही अत्यंत प्रभावित करते हुए ज्ञान की परंपरा के विस्तार के प्रति प्रेरित कर दिया था ।

नालंदा के अर्थ को और स्पष्ट करते हूए मैंने बताया कि कुछ विद्वानों ने नालंदा का अर्थ “नालम् + दा” से भी ग्रहण किया है जिसका तात्पर्य कमल (जो ज्ञान का प्रतीक है) एवं दा से ग्रहण करते हुए उन्होंने इसे ज्ञानदात्री भूमि भी बताया है तथा कुछ अन्य किंवदंतियों में एक विशाल सरोवर निवासी नाग पर भी नामकरण आधारित होने की चर्चा है परंतु चीनी यात्री ह्वेनसांग को पढ़ने पर ऐतिहासिक आधार अत्यंत स्पष्ट हो जाता है । ह्वेनसांग द्वारा नालंदा को सदैव देने वाली भूमि के रूप में ही वर्णित करते हुए एक प्राचीन कथा का स्मरण किया गया था जो उस काल में निश्चित ही अत्यंत प्रचलित रही होगी ।

ह्वेनसांग द्वारा बताया गया था कि उस काल में यह मान्यता थी कि भगवान बुद्ध जब किसी पूर्व जन्म में उसी क्षेत्र में बोधिसत्व थे तब एक अत्यंत दानवान राजा के रूप में उन्हें ख्याति प्राप्त थी । राजा द्वारा नित्य दान दिया जाता था जिसका कोई अंत प्रतीत नहीं होता था । जिसका कभी अंत न हो वैसे अद्भुत एवं अक्षय दान की परंपरा के कारण ही नालंदा नाम पड़ा था ।

मैंने सभी को बताया कि व्यक्तिगत रूप में मैंने भी जब इस अर्थ पर चिंतन किया तब प्रासंगिकता मुझे भी स्पष्ट हुई चूंकि इस भूमि ने निश्चित ही मुझे भी बहुत कुछ दिया है और तब से ही प्रेरित कर दिया था जब सर्वप्रथम 7, फरवरी, 1993 को #नालंदा_महाविहार के परिभ्रमण हेतु आने का अवसर मिला था । मैंने बताया कि जब भी अपनी अभी तक की जीवन रूपी यात्रा की दशा एवं दिशा पर चिंतन करता हूँ तब नालंदा में उस प्रथम परिभ्रमण का स्मरण अवश्य करता हूँ जब प्राचीन विश्वविद्यालय के भग्नावशेषों ने ही उस प्रेरणा का सूत्रपात किया था जिसने इतिहास के साथ मेरी #यात्रा को गतिमान कर दिया और क्रमशः एक अभियंता को सामाजिक क्षेत्र में योगदान हेतु संकल्पित कर एक पुलिस अधिकारी के रूप में परिवर्तित कर दिया । जागृत प्रेरणा सदैव जीवंत रूप में अंतर्मन में स्थापित रही और पुनः आगमन की प्रेरणा के कारण ही तत्पश्चात 27, सितम्बर, 2011 को तथा 25, नवम्बर, 2020 को भी भग्नावशेषों के मध्य चिंतन हेतु पुनः उपस्थित रहा था ।

आगे नालंदा की प्राचीन बौद्धिक परंपरा पर चर्चा करते हुए मैंने सभी को यह स्मरण कराया कि नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना तो गुप्तकाल में लगभग 1600 वर्ष पूर्व हुई थी परंतु ज्ञान की ऐसी प्रेरणा जिसने उस प्राचीन काल में विश्वविद्यालय का रूप ग्रहण किया का कारण बिहार में #ज्ञान की उस प्राचीन परंपरा का होना ही था जिसने वेदांत के संदेशों को उत्पन्न होते देखा और कालांतर में जिसने बौद्ध और जैन धर्मों के दर्शन सहित अनेक तत्वों एवं सिद्धांतों का जन्म देखा ।

जिस भूमि में कभी अध्ययन करने हेतु सुदूर विदेशों में भी विद्वान लालायित रहते थे, उसने ज्ञान के साथ-साथ #शौर्य के उत्कर्ष को भी अखंड भारत के केन्द्र रूप में स्वयं को स्थापित पाकर देखा और वह भी तब जब वर्तमान की भांति न सुगम मार्ग थे और न विकसित प्रौद्योगिकी । #उद्मिता की इस भूमि ने ऐतिहासिक काल में ऐसी प्रेरणा का संचार किया जिसके कारण दक्षिण पूर्वी ऐशिया के नगरों तथा यहाँ तक कि राष्ट्रों का भी नामकरण अपने नगरों के नामों पर होते देखा जिसका सबसे सशक्त उदाहरण वियतनाम है जो चंपा (वर्तमान भागलपुर, बिहार) के ही नाम से लगभग 1500 वर्षों तक जाना गया ।

प्राचीन परंपराओं का स्मरण करते हुए मैंने बताया कि यदि कालांतर में हमारा अपेक्षाकृत विकास नहीं हुआ और यदि हम पूर्व का स्मरण करते हुए वर्तमान में वैसा तारतम्य अनुभव नहीं करते तो इसका कारण कहीं न कहीं समय के साथ लघुवादों अथवा अतिवादों से ग्रसित होना ही रहा अन्यथा जिस भूमि ने इतिहास के उस काल में कभी महापद्मनंद को शाशक के रूप में सहर्ष स्वीकार जन्म विशेष के लिए नहीं परंतु उनकी क्षमताओं पर विचारण के उपरांत किया था, उसके उज्ज्वलतम भविष्य में भला संदेह कहाँ था ।

यह हमारे पूर्वजों के चिंतन की उत्कृष्टता ही थी जिसने बिहार को उस भूमि के रूप में तब स्थापित किया था । उर्जा निश्चित आज भी वही है, परंतु यदि हम वांछित उन्नति नहीं कर पा रहे तो आवश्यकता केवल इस चिंतन की है कि नैसर्गिक उर्जा का प्रयोग हम कहाँ कर रहे हैं । आवश्यकता लघुवादों यथा जातिवाद, संप्रदायवाद आदि संकीर्णताओं से परे उठकर राष्ट्रहित में आंशिक ही सही परंतु कुछ निस्वार्थ सकारात्मक सामाजिक योगदान समर्पित करने की है । मैंने सभी से चिंता नहीं अपितु चिंतन तथा आपस में संघर्ष नहीं अपितु सहयोग करने का आह्वान किया ।

मैंने सभी से कहा कि नालंदा की बौद्धिक परंपरा लगभग 1193 ईस्वी में मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी नामक विदेशी आक्रांता के आक्रमण के कारण विश्वविद्यालय के नष्ट होने के कारण अवश्य स्तब्ध हुई परंतु इतिहास यह भी साक्षी है कि उस काल में भी संरक्षण के प्रयास निरंतर गतिमान रहे और तभी 1230 ईस्वी में भ्रमण कर रहे तिब्बती आचार्य धर्मस्वामी ने विदीर्ण अवशेषों में तुरूष्कों के मध्य भी 90 वर्षीय आचार्य राहुल श्रीभद्र को उनके 80 शिष्यों के साथ छुप-छुप कर भी अध्ययनरत पाया । आज परिस्थितियां परिवर्तित हैं ।

भारत स्वतंत्र है तथा अतीत से प्रेरित उज्ज्वल भविष्य के निर्माण हेतु प्रयासरत है । वर्तमान काल में नवस्थापित “नालंदा युनिवर्सिटी” निश्चित ही भविष्य के प्रति आशान्वित कर रही है । आज भी नालंदा अपनी भावपूर्ण गाथा के साथ कहीं न कहीं भविष्य के निमित्त संदेश का प्रसार कर रही है । सदैव देने वाली भूमि के प्रतीक रूप में स्थापित नालंदा सदैव हमें अपने दायित्वों के प्रति सजग एवं प्रेरित करती रहेगी परंतु भूमि के गौरव को रक्षित एवं विस्तृत करने का प्रयास तो हमें ही करना होगा । सदैव देने वाली भूमि की ऐतिहासिक परंपरा को वर्तमान एवं भविष्य में भी गतिमान रखना ही हमारा सामुहिक दायित्व है ।

यात्रा गतिमान है ! अभियान से जुड़ने के लिए इस लिंक का प्रयोग कर सकते हैं –

https://forms.gle/bchSpPksnpYEMHeL6

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