दरभंगा में युवा संवाद ! वेदांत की दृष्टि तो ऐसी थी जिसमें कोई परस्पर भेदभाव था ही नहीं

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श्रीनारद मीडिया, सेंट्रल डेस्‍क:

लोकोक्तियों में पान, माछ और मखान को मिथिला की पहचान के रूप में जाना जाता है, परंतु जिस मिथिला को मैं जानता हूँ, उसकी पहचान तो प्राचीनतम काल से केवल एक ही है, और वह है #ज्ञान ! #LetsInspireBihar अभियान के अंतर्गत 24वें जिले दरभंगा में 3, जुलाई, 2022 (रविवार) को आयोजित हुए युवा संवाद में सम्मिलित होने हेतु जब 2, जुलाई को अपराह्न पाटलिपुत्र से प्रस्थान कर रहा था तब #यात्री_मन मिथिला की प्राचीन बौद्धिक परंपरा का ही स्मरण कर रहा था । जिस भूक्षेत्र के उत्तर में हिमालय, दक्षिण में गंगा, पूर्व में कौशिकी (कोशी) तथा पश्चिम में नारायणी (गंडक) प्राचीन काल से ही भौगोलिक सीमा के रूप में स्थापित रहीं हैं, उस मिथिला की विशेषताओं पर यदि चिंतन करेंगे तो निश्चित पाएंगे कि ज्ञान का उत्कर्ष कभी यहीं हुआ था जिससे संपूर्ण बिहार ही नहीं अपितु संपूर्ण भारतवर्ष भी अत्यंत प्रभावित हुआ था ।

जिस काल में न आज की भांति विकसित मार्ग थे, न विकसित सूचना तंत्र और न उन्नत प्रौद्योगिकी, उस संसाधन विहीन अवस्था में भी यदि बिहार के हमारे पूर्वज अखंड भारत के साम्राज्य की स्थापना कर सके जिसकी सीमाएं आज से अधिक विशाल थीं और ऐसे विश्वविद्यालय स्थापित कर सके जिनमें पढ़ने के लिए दुर्गम मार्गों से यात्रा कर विश्व भर के विद्वान आते थे, तो कारण एक ही था – उनका बृहत्तर दृष्टिकोण । उस बृहत्तर दृष्टिकोण के आधार को समझने के लिए उपनिषदों का अध्ययन ही पर्याप्त है चूंकि प्राचीन काल में जब वेदों को ज्ञान के भंडार के रूप में माना जाता था तब उस वैदिक परंपरा की भी अभिवृद्धि होती रही और एक समय ऐसा आया जब लगा कि उसने अपने उत्कर्ष को प्राप्त कर लिया है जिसके आगे अब कुछ शेष नहीं बचा । उस उत्कर्ष को ही वेदांत अर्थात ‘वेदों का अंत’ कहा गया जिसके द्रष्टा हमारे प्राचीन मिथिला के पूर्वज ही थे जिनका स्मरण करते ही जनक, याज्ञवल्क्य, विदुषी गार्गी वाचक्नवी, विदुषि मैत्रैयी, अष्टावक्र सहित अनेक प्राचीन नाम मानस पटल पर उभरने लगते हैं ।

वेदांत की दृष्टि तो ऐसी थी जिसमें कोई परस्पर भेदभाव था ही नहीं । आत्मा में भी परमात्मा को अनुभव करने वाले दर्शन ने न केवल मानव जाति में अपितु हर जीवात्मा में भी उसी एकात्म को ही स्थापित देखा जिसमें समस्त सृष्टि को संचालित करने की क्षमता समाहित थी । वेदांत की बृहत दृष्टि के कारण ही हमारी सोच अन्य क्षेत्रों से अग्रणी बनी रही और यही कारण रहा कि भारत के इतिहास में प्राचीनतम काल से सकारात्मक अपवाद यदि कहीं दिखते हैं तो वह बिहार में ही दिखते हैं । बृहतर चिंतन के कारण ही तो मिथिला के क्षेत्र में कभी वज्जी महाजनपद के रूप में विश्व का प्रथम गणतंत्र भी स्थापित हुआ जो उस काल में निश्चित अकल्पनीय था और जिसमें 7707 गणराजा प्रतिवर्ष वैशाली के संथागार में अपने गणाधिपति का चयन करते थे । मिथिला से ही उस वेदांत के ज्ञान का प्रसार हुआ जिसमें भेदभाव की भावना का कोई स्थान ही नहीं था और धीरे-धीरे उत्कृष्ट चिंतन बिहार के हर क्षेत्र को सकारात्मक परिवर्तन के निमित्त अपवाद प्रस्तुत करने हेतु तत्पर करने लगा । ऐसे समतामूलक चिंतन के कारण ही तो मगध में सबसे निम्न वर्ग से आने वाले नंद वंश को भी शासकों के रूप में स्वीकार्यता प्राप्त हो सकी जिससे समर्थ शासक मगध का विस्तार अखंड भारत के रूप में कर सके । ऐसे चिंतन के कारण ही तो आचार्य चाणक्य ने भी चंद्रगुप्त के सामर्थ्य के समक्ष वर्ण को अवरोध नहीं माना । ऐसी यात्रा तो अभिवृद्धि सहित गतिमान रहनी चाहिए थी परंतु यह निश्चित ही चिंतन का विषय है कि भला ऐसा क्या हुआ कि वही समाज धीरे-धीरे जाति-संप्रदाय आदि लघुवादों से ग्रसित होता चला गया और परस्पर संघर्ष करने लगा जिसका अत्यंत विकृत रूप आज हर क्षेत्र में स्पष्ट दृष्टिगोचर है और बिहार के विकास में सबसे बड़ा अवरोधक है ।

दरभंगा में कार्यक्रम का आयोजन ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय के जुबिली सभागार में किया गया था जहाँ अपने संबोधन के प्रारंभ में मिथिला की भूमि को नमन करते हुए मैंने अपने जन्म क्षेत्र (मेरा जन्म 21 नवंबर, 1979 को दरभंगा मेडिकल कॉलेज अस्पताल में ही हुआ था) को भी नमन किया और सभी को स्मरण कराया कि जातियों के होने के बावजूद भी यदि उस काल में जातिवाद आज की भांति हावी नहीं था तो उस सोच की आधारशिला वेदांत की दृष्टि के रूप में कभी मिथिला में ही रखी गई थी । आज आवश्यकता है पूर्वजों की उसी दृष्टि का स्मरण करते हुए #शिक्षा, #समता तथा #उद्यमिता के मंत्रों को ग्रहण करके सकारात्मक सामाजिक योगदान समर्पित करने का । समाज को नुकसान दुर्जनों के दुष्कृत्यों से उतना नहीं होता है जितना सज्जनों की निष्क्रियता से होता है । अतः मैने सभी से बिहार के भविष्य निर्माण हेतु आंशिक ही सही परंतु संकल्पित योगदान समर्पित करने हेतु आह्वान किया।

दरभंगा में संवाद के उपरांत जब पाटलिपुत्र की ओर वापस लौट रहा था, तब कार्यक्रम के प्रारंभ में राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त शंखवादक डॉ. विपिन कुमार मिश्रा के शंख वादन की ध्वनि मन में गुंजायमान थी और कह रही थी कि निश्चित ही शंखनाद की ध्वनि की भांति अभियान की ध्वनि भी सभी बिहारवासियों के मनों में गूंजेगी और अपने ही पूर्वजों की दृष्टि से प्रेरित होकर वर्तमान तथा भविष्य में योगदान हेतु तत्पर करेगी । संबोधन का वीडियो शीघ्र साझा करने का प्रयास करूंगा । अभियान से जुड़ने के लिए इस लिंक का प्रयोग कर सकते है।

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